अन्य सिद्धियों से विलक्षण सभी सिद्धियों के मूल रूप में स्थित समाधि से प्राप्त होने वाली सिद्धियों का वर्णन करके और अन्य जाति में प्राप्त होने वाले परिणाम रूप विशेष प्रकार की सिद्धि का प्रकृति के आपूर को ही कारण इस प्रकार से प्रतिपादन करके, धर्म-अधर्म आदि के रूप में प्रतिबन्धक को निवृत्त करने में ही सामर्थ्य है, इसको प्रदर्शित करके योगी के विभिन्न चित्त स्तरों का अस्मिता मात्र से उद्भव होता है ऐसा कह करके और उपरोक्त प्रकार से निर्मित उन चित्तों का, योगी का मूल चित्त ही ही प्रयोजक होता है, इसको दिखाकर योगी के चित्त की उपर्युक्त प्रकार से निर्मित चित्त स्तरों से विलक्षणता को कह करके और योगी के कर्मों की अलौकिकता = अर्थात् अशुक्ल-अकृष्ण रूपता को प्रतिपादित करके शुक्ल, कृष्ण और मिश्रित कर्मों के विपाक के अनुसार ही वासनाओं की अभिव्यक्ति के सामर्थ्य को और कार्य और कारण दोनों की एकता के प्रतिपादन द्वारा जाति, देश, काल के व्यवधान के होने पर भी वासनाओं की निरन्तरता को प्रतिपादित करके उन वासनाओं के अनन्त = अंसख्य होने पर भी हेतु, फल, आश्रय और आलम्बन द्वारा ही इन वासनाओं के संग्रह को दिखाकर, इनके अभाव से वासनओं के अभाव का वर्णन करके अतीत, वर्तमान और अनागत आदि कालों में धर्मों की सद्भावता को सिद्ध करके, विज्ञानवाद का निराकरण करके और सत्कारवाद की प्रतिष्ठा करके पुरुष के ज्ञाता स्वरूप को कह करके, चित्त के द्वारा सकल व्यवहारों की सिद्धि का प्रतिपादन करके, पुरुष की सत्ता की सिद्धि में प्रमाणों को दिखा कर कैवल्य के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करने के लिये दश सूत्रों के द्वारा क्रम से उपयोगी अर्थों = तत्त्वों को कह करके पुरुष के चेतनमात्र स्वरूप में प्रतिष्ठा ही अपवर्ग है, इस प्रकार से निर्णय किया गया। इस प्रकार से कैवल्यपाद का विवेचन प्रस्तुत किया गया॥