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Yajurveda / 30 / 1

देव॑ सवितः॒ प्र सु॑व य॒ज्ञं प्र सु॑व य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य।दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वः॑ के॑त॒पू केतं॑ नः पुनातु वा॒चस्पति॒र्वाचं॑ नः स्वदतु॥१॥

Veda : Yajurveda | Chapter : 30 | Mantra No : 1

In English:

Seer : naaraayaNaH | Devta : savitaa | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation under process. Will be uploaded Shortly.

Verse : deva savitaH pra suva yaj~na.m pra suva yaj~napati.m bhagaaya. divyo gandharvaH ketapuuH keta.m naH punaatu vaachaspatirvaacha.m naH svadatu .1 .

Component Words :
deva. savitariti savitaH. pra. suva. yaj~nam. pra. suva. yaj~napatimiti yaj~na.apatim. bhagaaya. divyaH. gandharvaH. ketapuuriti keta.apuuH. ketam. naH. punaatu. vaachaH. patiH. vaacham. naH. svadatu .1 .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नारायणः | देवता : सविता | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अब तीसवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर से क्या प्रार्थना करनी चाहिए, इस विषय को कहा है॥

पदपाठ : देव॑। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञम्। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञप॑तिमिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। के॒त॒पूरिति॑ केत॒ऽपूः। केत॑म्। नः॒। पु॒ना॒तु॒। वा॒चः। पतिः॑। वाच॑म्। नः॒। स्व॒द॒तु॒॥१॥

पदार्थ : हे (देव) दिव्यस्वरूप (सवितः) समस्त ऐश्वर्य से युक्त और जगत् को उत्पन्न करने हारे जगदीश्वर! जो आप (दिव्यः) शुद्ध स्वरूप में हुआ (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेहारा (केतपूः) विज्ञान को पवित्र करने वाला राजा (नः) हमारी (केतम्) बुद्धि को (पुनातु) पवित्र करे और जो (वाचः) वाणी का (पतिः) रक्षक (नः) हमारी (वाचम्) वाणी को (स्वदतु) मीठी चिकनी कोमल प्रिय करे, उस (यज्ञपतिम्) राज्य के रक्षक राजा को (भगाय) ऐश्वर्ययुक्त धन के लिए (प्र, सुव) उत्पन्न कीजिए और (यज्ञम्) राजधर्मरूप यज्ञ को भी (प्र, सुव) सिद्ध कीजिए॥१॥

भावार्थ : जो विद्या की शिक्षा को बढ़ाने वाला, शुद्ध-गुण-कर्म-स्वभावयुक्त, राज्य की रक्षा करने को यथायोग्य ऐश्वर्य को बढ़ाने हारा, धर्मात्माओं का रक्षक, परमेश्वर का उपासक और समस्त शुभ गुणों से युक्त हो, वही राजा होने के योग्य होता है॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : नारायणः | देवता : सविता | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : तत्रादावीश्वरात् किं प्रार्थनीयमित्याह॥

पदपाठ : देव॑। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञम्। प्र। सु॒व॒। य॒ज्ञप॑तिमिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। के॒त॒पूरिति॑ केत॒ऽपूः। केत॑म्। नः॒। पु॒ना॒तु॒। वा॒चः। पतिः॑। वाच॑म्। नः॒। स्व॒द॒तु॒॥१॥

पदार्थ : (देव) दिव्यस्वरूप (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त जगदुत्पादक (प्र) प्रकर्षेण (सुव) संपादय (यज्ञम्) राजधर्माख्यम् (प्र) (सुव) उत्पादय (यज्ञपतिम्) यज्ञस्य राज्यस्य पालकम् (भगाय) ऐश्वर्ययुक्ताय धनाय। भग इति धननामसु पठितम्॥ (निघ॰२।१०) (दिव्यः) दिवि शुद्धस्वरूपे भवः (गन्धर्वः) यो गां पृथिवीं धरति सः (केतपूः) य केतं विज्ञानं पुनाति सः (केतम्) प्रज्ञानम्। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्॥ (निघ॰३।९) (नः) अस्माकम् (पुनातु) पवित्रयतु (वाचस्पतिः) वाण्याः पालकः (वाचम्) वाणीम् (नः) अस्माकम् (स्वदतु) आस्वादयतु॥१॥

अन्वय : हे देव सवितर्जगदीश्वर! त्वं यो दिव्यो गन्धर्वः केतपू राजा नः केतं पुनातु यो वाचस्पतिर्नो वाचं स्वदतु, तं यज्ञपतिं भगाय प्रसुव यज्ञञ्च प्रसुव॥१॥

भावार्थ : यो विद्याशिक्षावर्द्धकः शुद्धगुणकर्मस्वभावो राज्यं पातुं यथायोग्यैश्वर्यवर्द्धको धार्मिकाणां पालकः परमेश्वरोपासकः सकलशुभगुणाढ्यो भवेत्, स एव राजा भवितुं योग्यो भवति॥१॥