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Samveda/17

अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१७

Veda : Samveda | Mantra No : 17

In English:

Seer : shunaH shepa aajiigartiH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : ashva.m na tvaa vaaravanta.m vandadhyaa agni.m namobhiH . samraajantamadhvaraaNaam.17

Component Words :
ashvam. na. tvaa. vaaravantam vandadhyai. agnim namobhiH. samraajantam. sam.raajantam.adhvaraaNaam..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अब वन्दना करने के लिए परमात्मा का आह्वान करते हैं।

पदपाठ : अश्वम्। न। त्वा। वारवन्तम् वन्दध्यै। अग्निम् नमोभिः। सम्राजन्तम्। सम्।राजन्तम्।अध्वराणाम्।७।

पदार्थ : (वारवन्तम्) डाँस, मच्छर आदि को निवारण करनेवाले बालों से युक्त (अश्वं न) घोड़े के समान (वारवन्तम्) विपत्तिनिवारण के सामर्थ्यों से युक्त, (अध्वराणाम्) हिंसादि दोषों से रहित यज्ञों के (सम्राजन्तम्) सम्राट् के समान (त्वा) आप (अग्निम्) तेजस्वी परमात्मा को (नमोभिः) नमस्कारों से (वन्दध्यै) वन्दना करने के लिए [(आहुवे) पुकारता हूँ] ॥७॥ 'अश्वं न त्वा वारवन्तम्' में श्लिष्टोपमाङ्कार है। 'सम्राजन्तम् अध्वराणाम्' में लुप्तोपमा है ॥७॥

भावार्थ : घोड़ा जैसे बालों से डाँस, मच्छर आदि का निवारण करता है, वैसे परमेश्वर अपने निवारणसामर्थ्यों से विपत्ति आदि का निवारण करता है। जैसे सम्राट् का अपने राज्य में सब पर प्रभुत्व होता है, वैसे ही परमात्मा विविध यज्ञों का प्रभु है। अतः ध्यान-यज्ञ में श्रद्धा के साथ सबको उसे पुकारना चाहिए ॥७॥


In Sanskrit:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ वन्दितुं परमात्मानमाह्वयति।

पदपाठ : अश्वम्। न। त्वा। वारवन्तम् वन्दध्यै। अग्निम् नमोभिः। सम्राजन्तम्। सम्।राजन्तम्।अध्वराणाम्।७।

पदार्थ : (वारवन्तम्२) वारैः दंशमशकादिनिवारकैर्बालैः युक्तम् (अश्वम्) वाजिनम् (न) इव (वारवन्तम्) वारैः विपत्तिनिवारणसामर्थ्यैः युक्तम्। 'वाराः बालाः दंशवारणार्था भवन्ति' इति निरुक्तम् १।२०। तथैव वारयति विपदादिकमेभिरिति वाराः निवारणसामर्थ्यानि। (अध्वराणाम्३) हिंसादिदोषवर्जितानां यज्ञानाम् (सम्राजन्तम्) सम्राडिवाचरन्तम्। सम्राडिवाचरतीति सम्राजति, 'सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब् वा वक्तव्यः।' अ० ३।१।११ वा० इत्याचारार्थे क्विप्। शतरि द्वितीयैकवचने सम्राजन्तमिति रूपम्। (त्वा) त्वाम् (अग्निम्) तेजस्विनं परमात्मानम् (नमोभिः) नमस्कारैः (वन्दध्यै) वन्दितुम्। वदि अभिवादनस्तुत्योः। 'तुमर्थे सेसेनसेऽसेन्क्सेकसेनध्यैअध्यैन्०।’ अ० ३।४।९ इति तुमर्थे अध्यै प्रत्ययः। आहुवे आह्वयामि इत्युत्तरमन्त्रादाकृष्यते ॥७॥'अश्वं न त्वा वारवन्तम्' इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। 'सम्राजन्तम् अध्वराणाम्' इत्यत्र लुप्तोपमा ॥७॥

भावार्थ : अश्वो यथा बालैर्दंशमशकादीन् निवारयति तथा परमेश्वरः स्वनिवारणसामर्थ्यैर्विपदादिकं निवारयति। यथा सम्राट् स्वकीये राज्ये सर्वेषां प्रभुस्तथा परमात्मा विविधयज्ञानां प्रभुः। अतो ध्यानयज्ञे श्रद्धया स सर्वैराह्वातव्यः ॥७॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।२७।१, साम० १६३४।२. प्रशंसायां मतुप्। प्रशस्तकेसरवन्तम् अश्वमिवेति अर्चिष्ठत्वस्य उपमा—इति भ०।३. राज्यपालनाग्निहोत्रादिशिल्पान्तानां यज्ञानां मध्ये इति ऋ० १।२७।१ भाष्ये द०। तत्र दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः, भौतिकाग्नेः परमेश्वरस्य चापि संकेतः कृतः।