Samveda/24
अग्ने रक्षा णो अहसः प्रति स्म देव रीषतः। तपिष्ठैरजरो दह॥२४
Veda : Samveda | Mantra No : 24
In English:
Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : agne rakShaa No a.m hasaH prati sma deva riiShataH . tapiShThairajaro daha.24
Component Words : agne. rakShaa. naH. a.NhasaH. prati. sma. deva . riiShataH. tapiShThaiH. ajaraH . a. jaraH. daha. .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अब परमात्मा से पाप आदि से रक्षा की प्रार्थना करते हैं।
पदपाठ : अग्ने। रक्षा। नः। अँहसः। प्रति। स्म। देव । रीषतः। तपिष्ठैः। अजरः । अ। जरः। दह। ४।
पदार्थ : हे (अग्ने) ज्योतिष्मन् परमात्मन् ! आप (नः) हमारा (अंहसः) पापाचरण से (रक्ष त्राण) कीजिए। हे (देव) दिव्यगुणकर्मस्वभाव, सकलैश्वर्यप्रदाता, प्रकाशमान, सर्वप्रकाशक जगदीश्वर ! (अजरः) स्वयं नश्वरता, जर्जरता आदि से रहित आप (रिषतः) हिंसापरायण आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं को (तपिष्ठैः) अतिशय संतापक स्वकीय सामर्थ्यों से (प्रति दह स्म) भस्मसात् कर दीजिए ॥४॥इस मन्त्र की श्लेष से भौतिक अग्नि तथा राजा के पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥४॥
भावार्थ : जैसे भौतिक अग्नि शीत से, अन्धकार से और बाघ आदिकों से रक्षा करता है, अथवा राजा पापियों को दण्डित कर, आक्रमणकारियों और शत्रुओं को पराजित कर प्रजा की पाप तथा शत्रुओं से रक्षा करता है, वैसे ही परमात्मा हमें आत्मरक्षा करने का सामर्थ्य प्रदान कर पापाचरण से तथा आन्तरिक एवं बाह्य शत्रुओं से हमारी रक्षा करे ॥४॥
In Sanskrit:
ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ परमात्मा पापादिभ्यो रक्षणार्थं प्रार्थ्यते।
पदपाठ : अग्ने। रक्षा। नः। अँहसः। प्रति। स्म। देव । रीषतः। तपिष्ठैः। अजरः । अ। जरः। दह। ४।
पदार्थ : हे (अग्ने) ज्योतिष्मन् परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान्। संहितायां 'नश्च धातुस्थोरुषुभ्यः' अ० ८।४।२७ इति नस्य णः। (अंहसः) पापाचरणात् (रक्ष) परित्रायस्व। संहितायां 'द्व्यचोऽतस्तिङः' अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। हे (देव) दिव्यगुणकर्मस्वभाव, सकलैश्वर्यप्रदातः, प्रकाशमान, सर्वप्रकाशक ! (देवो) दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा इति निरुक्तम्। ७।१५। (अजरः) स्वयं हिंसाजर्जरत्वादिरहितस्त्वम् (रिषतः) अस्माकं हिंसापरायणान् आन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् 'रीषतः' इति संहितायां छान्दसं दीर्घत्वम्। (तपिष्ठैः) सन्तापकतमैः स्वकीयैः तेजोभिः (प्रति दह स्म) भस्मसात् कुरु ॥४॥२अत्र श्लेषेण भौतिकाग्निपक्षे राजपक्षे चाप्यर्थो योजनीयः ॥४॥३
भावार्थ : यथा भौतिकाग्निः शीतादन्धकाराद् व्याघ्रादिभ्यश्च रक्षति, यथा वा राजा पापिनो दण्डयित्वाऽऽक्रामकान् रिपूँश्च पराजित्य प्रजां पापाच्छत्रुभ्यश्च रक्षति, तथैव परमात्माऽस्मभ्यमात्मरक्षायाः सामर्थ्यं दत्त्वाऽस्मान् पापाचरणादान्तराद् बाह्याच्च शत्रोः रक्षेत् ॥४॥
टिप्पणी:१. ऋ० ७।१५।१३, 'स्म' इत्यत्र 'ष्म' इति पाठः।२. स्म इति पूरणः—इति वि० भ०।३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं भौतिकाग्निसादृश्येन राजपक्षे व्याख्यातवान्।