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Samveda/38

त्वे अग्ने स्वाहुत प्रियासः सन्तु सूरयः। यन्तारो ये मघवानो जनानामूर्वं दयन्त गोनाम्॥३८

Veda : Samveda | Mantra No : 38

In English:

Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : agniH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tve agne svaahuta priyaasaH santu suurayaH . yantaaro ye maghavaano janaanaamuurva.m dayanta gonaam.38

Component Words :
tveiti. agne . svaahuta . su. aahuta.priyaasaH. santu .suurayaH. yantaaraH. ye. maghavaanaH. janaanaa.m. uurva.m. dayanta. gonaam..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : कौन लोग परमात्मा के प्रिय हों, यह कहते हैं।

पदपाठ : त्वेइति। अग्ने । स्वाहुत । सु। आहुत।प्रियासः। सन्तु ।सूरयः। यन्तारः। ये। मघवानः। जनानां। ऊर्वं। दयन्त। गोनाम्।४।

पदार्थ : हे (स्वाहुत) श्रद्धारसों की हवियों से सम्यक् आहुतिप्राप्त (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् ! आपके (सूरयः) स्तोता विद्वान् जन (त्वे) आपकी दृष्टि में (प्रियासः) प्रिय (सन्तु) होवें, (मघवानः) लौकिक एवं आध्यात्मिक धनों से सम्पन्न (ये) जो (जनानाम्) मनुष्यों के (यन्तारः) शुभ एवं अशुभ कर्मों में नियन्त्रणकर्ता होते हुए (गोनाम्) चक्षु आदि इन्द्रियों के (ऊर्वम्) हिंसक दोष को (दयन्त) नष्ट करते हैं, अथवा (गोनाम्) वेदवाणियों के (ऊर्वम्) समूह को (दयन्त) अन्यों को प्रदान करते हैं; अथवा (गोनाम्) गायों की (ऊर्वम्) गोशाला की (दयन्त) रक्षा करते हैं ॥४॥

भावार्थ : जो विद्वान् श्रद्धालु लौकिक और आध्यात्मिक सब प्रकार के धन को उपार्जित कर, योग्य होकर, लोगों का नियन्त्रण करते हैं, अपने और दूसरों के इन्द्रिय-दोषों को दूर करते हैं, वेद-वाणियों का प्रसार करते हैं और अमृत प्रदान करनेवाली गायों की रक्षा करते हैं, वे ही परमात्मा के प्रिय होते हैं ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ के जनाः परमात्मनः प्रियाः सन्त्वित्याह।

पदपाठ : त्वेइति। अग्ने । स्वाहुत । सु। आहुत।प्रियासः। सन्तु ।सूरयः। यन्तारः। ये। मघवानः। जनानां। ऊर्वं। दयन्त। गोनाम्।४।

पदार्थ : हे (स्वाहुत) श्रद्धा-रसानां हविर्भिः सम्यगाहुत (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् ! ते (सूरयः) स्तोतारो विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। (त्वे) त्वयि तव दृष्टौ। युष्मच्छब्दात् सप्तम्येकवचने। 'सुपां सुलुक्०' अ० ७।१।३९ इति विभक्तेः शे आदेशः। (प्रियासः) प्रियाः। 'आज्जसेरसुक्' अ० ७।१।५० इति जसोऽसुगागमः। (सन्तु) भवन्तु, (मघवानः) लौकिकाध्यात्मिकधनसम्पन्नाः (ये) सूरयः (जनानाम्) मानवानाम् (यन्तारः) सदसत्कर्मसु नियन्त्रणकर्तारः सन्तः (गोनाम्) गवाम् चक्षुरादीनामिन्द्रियाणाम्। पादान्तत्वाद् 'गोः पादान्ते' अ० ७।१।५७ इति नुट्। (ऊर्वम्) हिंसकं दोषम्। उर्वी हिंसार्थः। (दयन्त) हिंसन्ति अपसारयन्ति। दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु, लडर्थे लङ्, 'बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि।’ अ० ६।४।७५ इत्यडागमाभावः। यद्वा, (गोनाम्) वेदगिराम् (ऊर्वम्)२ समूहम् (दयन्त) अन्येभ्यः प्रयच्छन्ति, वेदार्थान् वेदानुकूलकर्माणि च लोकेषु प्रसारयन्तीत्यर्थः। यद्वा, (गोनाम् धेनूनाम् (ऊर्वम्) गोष्ठम् (दयन्त) रक्षन्ति ॥४॥३

भावार्थ : ये विद्वांसः श्रद्धालवो जना लौकिकमाध्यात्मिकं च सर्वविधं धनं समुपार्ज्य योग्याः सन्तो जनान् नियच्छन्ति, स्वात्मनः परेषां चेन्द्रियकल्मषाण्यपहरन्ति, वेदगिरः प्रसारयन्ति, अमृतप्रदात्रीर्गाश्च रक्षन्ति, त एव परमात्मनः प्रिया जायन्ते ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ७।१६।७, य० ३३।१४ उभयत्र 'जनानामूर्वं' इत्यत्र 'जनानामूर्वान्' इति पाठः।२. उरुशब्दस्य बहुनाम्नः द्वितीयैकवचने छान्दसमादिदीर्घत्वम्, लुगमिपूर्वत्वं च छान्दसत्वादेव न भवति, यणादेशः। ऊर्वं बहु इत्यर्थः—इति वि०। ऊर्वम् समूहम्—इति भ०, सा०।३. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये राजपक्षे, यजुर्भाष्ये च विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।