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Samveda/48

अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे। ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पते देवा अवो वरेण्यम्॥४८

Veda : Samveda | Mantra No : 48

In English:

Seer : manu vaivasvat | Devta : agniH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : agnirukthe purohito graavaaNo barhiradhvare . RRichaa yaami maruto brahmaNaspate devaa avo vareNyam.48

Component Words :
agniH. ukthe . purohitaH. puraH.hitaH . graavaaNaH. barhiH. adhvare. RRichaa. yaami. marutaH. brahmaNaH .pate. devaaH. avaH .vareNyam..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मनु वैवस्वत | देवता : अग्निः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अब उपासना-यज्ञ की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं।

पदपाठ : अग्निः। उक्थे । पुरोहितः। पुरः।हितः । ग्रावाणः। बर्हिः। अध्वरे। ऋचा। यामि। मरुतः। ब्रह्मणः ।पते। देवाः। अवः ।वरेण्यम्।४।

पदार्थ : (उक्थे) स्तुतिमय (अध्वरे) हिंसादि के दोष से रहित उपासना-यज्ञ में (अग्निः) ज्योतिर्मय परमात्मा (पुरोहितः) संमुख निहित है; (ग्रावाणः) स्तुति-शब्द-रूप यज्ञिय सिल-बट्टे भी (पुरोहिताः) संमुख निहित हैं; (बर्हिः) हृदय-रूप पवित्र कुशा-निर्मित आसन भी (पुरोहितम्) संमुखस्थ है। हे (मरुतः) प्राणो ! हे (ब्रह्मणः पते) ज्ञानगुणविशिष्ट जीवात्मन् ! हे (देवाः) इन्द्रिय-मन-बुद्धि-रूप ऋत्विजो ! मैं (ऋचा) ईश-स्तुति-रूप वाणी के साथ आपकी (वरेण्यम्) वरणीय (अवः) रक्षा को (यामि) माँग रहा हूँ ॥४॥

भावार्थ : जैसे बाह्य यज्ञ में यज्ञ-वेदि में अग्नि प्रज्वलित की जाती है, वहाँ सोम-आदि ओषधियों को पीसने के साधनभूत सिल-बट्टे तथा ऋत्विजों के बैठने के लिए कुशानिर्मित आसन भी तैयार रहते हैं; वैसे ही उपासना-यज्ञ में परमात्मा-रूप अग्नि समिद्ध की जाती है; स्तुतिशब्द ही सिल-बट्टे होते हैं; हृदय की कुशानिर्मित आसन होता है, ब्रह्मणस्पति नामक जीवात्मा ही यजमान बनता है; प्राण-इन्द्रिय-मन-बुद्धि ऋत्विज् बनकर हृदयासन पर बैठकर उस यज्ञ को फैलाते हैं, जिनकी सहायता और जिनकी रक्षा यज्ञ की सफलता के लिए अनिवार्य है। इसलिए सब उपासकों को आभ्यन्तर यज्ञ में उनकी रक्षा की याचना करनी चाहिए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : मनु वैवस्वत | देवता : अग्निः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथोपासनायज्ञस्य प्रक्रियामाह।

पदपाठ : अग्निः। उक्थे । पुरोहितः। पुरः।हितः । ग्रावाणः। बर्हिः। अध्वरे। ऋचा। यामि। मरुतः। ब्रह्मणः ।पते। देवाः। अवः ।वरेण्यम्।४।

पदार्थ : (उक्थे) स्तुतिमये। वच परिभाषणे धातोः 'पातृतुदिवचि०’ उ० २।७ इति थक्-प्रत्ययः। (अध्वरे) हिंसादिदोषरहिते उपासनायज्ञे (अग्निः) ज्योतिर्मयः परमात्मा (पुरोहितः) संमुखं निहितोऽस्ति। (ग्रावाणः) स्तुतिशब्दरूपाः यज्ञियपाषाणाः अपि (पुरोहिताः) संमुखस्थाः सन्ति। गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। यद्वा गॄ शब्दे, क्वनिप् प्रत्ययः धातोर्ग्रादेशश्च। (बर्हिः) हृदयरूपं पवित्रं दर्भासनमपि (पुरोहितम्) सम्मुखस्थं विद्यते। अत्र यथायोग्यं विशेष्यशब्दस्य लिङ्गवचनानुसारं विशेषणभूतः पुरोहितशब्दोऽपि परिवर्तते। हे (मरुतः) प्राणाः ! हे (ब्रह्मणः पते) ज्ञानगुणविशिष्ट जीवात्मन् ! ब्रह्मणस्पतिः ब्रह्मणः पाता वा पालयिता वा इति निरुक्तम्। १०।१२। 'षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु।’ अ० ८।३।५३ इति विसर्गस्य सत्वम्। हे (देवाः) इन्द्रियमनोबुद्धिरूपा ऋत्विजः ! देवा ऋत्विजः। तै० सं० १।६।५।१। अहम् (ऋचा) ईशस्तुतिरूपया वाचा सह। ऋक् इति वाङ्नाम। निघं० १।११। ऋच् स्तुतौ, क्विप्। वः (वरेण्यम्) वरणीयम् (अवः) रक्षणम् (यामि२) याचामि। यामि इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निरु० ३।१९ ॥४॥

भावार्थ : यथा बाह्ययज्ञे यज्ञवेद्यामग्निः प्रदीप्यते, तत्र सोमादिपेषणसाधनभूता ग्रावाणः, ऋत्विजामुपवेशनाय दर्भासनानि सज्जितानि भवन्ति, तथैवोपासनायज्ञे परमात्मरूपोऽग्निः समिध्यते, अर्चनाशब्दा एव पाषाणा जायन्ते, हृदयमेव दर्भासनतां प्रपद्यते। बृहस्पतिर्नाम जीवात्मैव यजमानो भवति। प्राणेन्द्रियमनोबुद्धय ऋत्विजो भूत्वा हृदयासनमुपविश्य तं यज्ञं प्रतन्वन्ति येषां साहाय्यं यत्कृतं रक्षणं च यज्ञस्य साफल्यार्थमनिवार्यमस्ति। अतः सर्वैरुपासकैराभ्यन्तरयज्ञे तेषां रक्षणं याचनीयम् ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।२७।१ 'देवाँ अवो' इति पाठः।२. नेदं याचते रूपम्। किं तर्हि? ईमहे यामि इत्यर्चतिकर्मसु पाठात्याते रूपम्—इति वि०। यामि याचामि, मध्यमाक्षरलोपः—इति भ०। याचतेर्लटि रूपम्, वर्णलोपश्छान्दसः—इति० सा०।