Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/57

ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता। ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे॥५७

Veda : Samveda | Mantra No : 57

In English:

Seer : kaNvo ghauraH | Devta : yuup | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : uurdhvo uu Shu Na uutaye tiShThaa devo na savitaa . uurdhvaa vaajasya sanitaa yada~njibhirvaaghadbhirvihvayaamahe.57

Component Words :
uurdhvaH .uu. su. naH. uutaye .tiShTha. devaH. na .savitaa. uurdhvaH. vaajasya. sanitaa. yat. a~njibhiH. vaaghadbhiH. vihvayaamahe.vi.hvayaamahe..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कण्वो घौरः | देवता : यूप | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में यूप देवता है। यूप के समान उन्नत परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

पदपाठ : ऊर्ध्वः ।ऊ। सु। नः। ऊतये ।तिष्ठ। देवः। न ।सविता। ऊर्ध्वः। वाजस्य। सनिता। यत्। अञ्जिभिः। वाघद्भिः। विह्वयामहे।वि।ह्वयामहे।३।

पदार्थ : हे यज्ञस्तम्भ के समान उन्नत परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा के लिए (देवः) प्रकाशक (सविता न) सूर्य के समान (उ) निश्चय ही (सु) भली-भाँति (ऊर्ध्वः) हमारे हृदय में समुन्नत होते हुए (वाजस्य) आत्मिक बल के (सनिता) प्रदाता होवो, (यत्) क्योंकि (अञ्जिभिः) स्वच्छ किये हुए (वाघद्भिः) स्तुति का वहन करनेवाले मन-बुद्धि-इन्द्रिय रूप ऋत्विजों के द्वारा, हम आपको (विह्वयामहे) विशेष रूप से पुकार रहे हैं, आपकी स्तुति कर रहे हैं ॥३॥इस मन्त्र में उपमेय के निगरणपूर्वक उपमेय परमात्मा में यूपत्व का आरोप होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है। 'देव सविता के समान उन्नत' में पूर्णोपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : परमात्मा को यज्ञस्तम्भ के समान और सूर्य के समान जब अपने हृदय में हम समुन्नत करते हैं, तब वह हमें महान् फल प्रदान करता है ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : कण्वो घौरः | देवता : यूप | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ यूपो देवता। यूपवदुन्नतः परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदपाठ : ऊर्ध्वः ।ऊ। सु। नः। ऊतये ।तिष्ठ। देवः। न ।सविता। ऊर्ध्वः। वाजस्य। सनिता। यत्। अञ्जिभिः। वाघद्भिः। विह्वयामहे।वि।ह्वयामहे।३।

पदार्थ : हे यूप२ यूपवदुच्छ्रित परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाय (देवः) प्रकाशकः (सविता न) सूर्यः इव (उ) निश्चयेन सु सम्यक् (ऊर्ध्वः) अस्माकं हृदये समुन्नतः (तिष्ठ) वर्त्तस्व। संहितायां 'द्व्यचोऽतस्तिङः।’ अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (ऊर्ध्वः) समुन्नतः सन् (वाजस्य) आत्मिकबलस्य (सनिता३) प्रदाता भव। षणु दाने, तृनि रूपम्। (यत्) यस्मात् (अञ्जिभिः४) स्वच्छीकृतैः। अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, औणादिकः इन्। (वाघद्भिः) स्तुतिवहनशीलैः मनोबुद्धीन्द्रियरूपैः ऋत्विग्भिः। वाघतः इति ऋत्विङ्नाम। निघं० ३।१८। वाघतः वोढारः इति निरुक्तम्। ११।१६। वयं त्वाम् (वि ह्वयामहे) विशेषेण आह्वयामः (स्तुमः)। 'ऊ' इत्यत्र ‘इकः सुञि।’ अ० ६।३।१३४ इति दीर्घः। 'षु' इत्यत्र 'सुञः।’ अ० ८।३।१०७ इति मूर्धन्यादेषः। 'ण' इत्यत्र 'नश्च धातुस्थोरुषुभ्यः।’ अ० ८।४।२७ इति षत्वम् ॥३॥५अत्रोपमेयनिगरणपूर्वकं परमात्मनि यूपत्वारोपादतिशयोक्ति- रलङ्कारः, 'ऊर्ध्वः देवो न सविता' इत्यत्र च पूर्णोपमा ॥३॥

भावार्थ : परमात्मानं हि यूपवत् सूर्यवच्च स्वहृदि यदा वयं समुन्नमामस्तदा महत् फलं सोऽस्मभ्यं प्रयच्छति ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।३६।१३, य० ११।४२। उभयत्र देवता अग्निः।२. इयं यूपस्य उच्छ्रयणे अनूच्यते—इति भ०। हे यूप यद्वा यूपात्मकदारुनिष्ठ अग्ने—इति सा०।३. सनितिर्लाभः, तस्मादयं तादर्थ्यचतुर्थ्या आ आदेशः, सनितये लाभायेत्यर्थः—इति वि०। सनिता दाता भवेति शेषः—इति भ०।४. अञ्जिभिः त्वद्गुणप्रकाशकैश्छन्दोभिः—इति वि०। अञ्जिभिः छन्दोभिः। व्यज्यन्ते सिच्यन्ते वर्धन्ते देवता अमीभिरिति अञ्जयः। वाघद्भिः आवहद्भिः। 'यदञ्जिभिः वाघद्भिः विह्वयामहे' इति छन्दांसि वा अञ्जयो वाघतः तैरेतद् देवान् यजमाना विह्वयन्ते मम यज्ञम् आगच्छत मम यज्ञमिति (ऐ० ब्रा० २।२) इति हि ऐतरेयकम्—इति भ०। अञ्जिभिः यज्ञेन यूपमञ्जद्भिः वाघद्भिः यज्ञं वहद्भिः ऋत्विग्भिः—इति सा०।५. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये सभाध्यक्षपक्षे यजुर्भाष्ये च विद्वदध्यापकपक्षे व्याख्यातः।