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Samveda/69

आ वो राजानमध्वरस्य रुद्र होतार सत्ययज रोदस्योः। अग्निं पुरा तनयित्नोरचित्ताद्धिरण्यरूपमवसे कृणुध्वम्॥६९

Veda : Samveda | Mantra No : 69

In English:

Seer : vaamadevo gautamaH | Devta : agniH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa vo raajaanamadhvarasya rudra.m hotaara.m satyayaja.m rodasyoH . agni.m puraa tanayitnorachittaaddhiraNyaruupamavase kRRiNudhvam.69

Component Words :
aa. vaH. raajaanam.adhvarasya. rudram. hotaaram. satyayajam .satya.yajam. rodasyoH. agnim. puraa. tanayitnoH.achittaat.a.chittaat. hiraNyaruupam.hiraNya.ruupam. avase. kRRiNudhvam. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वामदेवो गौतमः | देवता : अग्निः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में यह उपदेश किया गया है कि आत्मरक्षा के लिए परमात्मा का सेवन करो।

पदपाठ : आ। वः। राजानम्।अध्वरस्य। रुद्रम्। होतारम्। सत्ययजम् ।सत्य।यजम्। रोदस्योः। अग्निम्। पुरा। तनयित्नोः।अचित्तात्।अ।चित्तात्। हिरण्यरूपम्।हिरण्य।रूपम्। अवसे। कृणुध्वम्। ७।

पदार्थ : हे मनुष्यो ! आप लोग (वः) अपने (अध्वरस्य) जीवन-यज्ञ के (राजानम्) सम्राट्, (रुद्रम्) पापियों को रुलानेवाले और पुण्यात्माओं के दुःख को दूर करनेवाले, सत्योपदेशकर्ता, (होतारम्) सृष्टि के प्रदाता और संहर्ता, (रोदस्योः) द्यावापृथिवी में (सत्ययजम्) सच्चा सामंजस्य स्थापित करनेवाले, (हिरण्यरूपम्) ज्योतिर्मय (अग्निम्) नायक परमात्मा को (अवसे) आत्मरक्षा के लिए (तनयित्नोः) बिजली के समान अचानक आक्रमण कर देनेवाले, (अचित्तात्) मोहावस्था के प्रापक मृत्यु के आने से पुरा पहले ही (आकृणुध्वम्) सेवन कर लो ॥७॥

भावार्थ : मृत्यु बिजली की चकाचौंध के समान न जाने कब अचानक आकर हमारा गला पकड़ ले, इस कारण उसके आने से पहले ही विविध गुणों से समृद्ध परमात्मा का सेवन करके हमें आत्मोद्धार कर लेना चाहिए ॥७॥


In Sanskrit:

ऋषि : वामदेवो गौतमः | देवता : अग्निः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथात्मरक्षायै परमात्मानं सेवध्वमित्युपदिश्यते।

पदपाठ : आ। वः। राजानम्।अध्वरस्य। रुद्रम्। होतारम्। सत्ययजम् ।सत्य।यजम्। रोदस्योः। अग्निम्। पुरा। तनयित्नोः।अचित्तात्।अ।चित्तात्। हिरण्यरूपम्।हिरण्य।रूपम्। अवसे। कृणुध्वम्। ७।

पदार्थ : हे मनुष्याः ! यूयम् (वः) युष्माकम् (अध्वरस्य) जीवनयज्ञस्य। पुरुषो वाव यज्ञः। छां० उ० ३।१७।१ इत्युपनिषत्प्रामाण्यान्मनुष्यजीवनं यज्ञ एव। (राजानम्) सम्राजम्, (रुद्रम्२) पापिनां रोदयितारं पुण्यात्मनां च दुःखस्य द्रावयितारम्, यद्वा सत्योपदेशप्रदम्। अग्निरपि रुद्र उच्यते। निरु० १०।७, अग्निर्वै रुद्रः। श० ५।३।१।१०। (होतारम्) सृष्टेः प्रदातारं संहर्तारं च। हु दानादनयोः आदाने चेत्येके। (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः। रोदसी इति द्यावापृथिवीनाम। निघं० ३।३०। (सत्ययजम्) सत्यं यथार्थं यष्टारं परस्परं संगमयितारम् (हिरण्यरूपम्) सुवर्णवद् भास्वरम्, ज्योतिर्मयमित्यर्थः। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। श० ४।३।१।२१ (अग्निम्) नायकं परमात्मानम् (अवसे) रक्षणाय (तनयित्नोः३) स्तनयित्नोः विद्युद्वद् अकस्मादाक्रमणशीलात् (अचित्तात्४) न विद्यते चित्तं ज्ञानं यस्मिन् तस्माद् मोहावस्थाप्रापकान्मृत्योः (पुरा) पूर्वमेव (आकृणुध्वम्) आसेवध्वम्। कृवि हिंसाकरणयोश्च, स्वादिः ॥७॥५

भावार्थ : मृत्युर्विद्युच्चाकचक्यमिव न जाने कदाऽस्मादागत्य गलग्रहं नः कुर्यादिति हेतोस्तदागमनात् पूर्वमेव विविधगुणगणाढ्यं परमात्मानं संसेव्यास्माभिः स्वात्मा समुद्धर्तव्यः ॥७॥

टिप्पणी:१. ऋ० ४।३।१।२. द्रष्टव्यम् १५ संख्याकस्य साममन्त्रस्य भाष्यम्। 'इयं रौद्रीति केचित्'—इति भ०।३. तनयित्नुः अशनिः, स हि आकस्मिकः, तत्सदृशात्—इति सा०।४. अचित्तात् न विद्यते चित्तं यस्मिन् तदचित्तम्, चित्तोपलक्षितसर्वेन्द्रियोपसंहारो मरणमिति यावत्, तस्मान्मरणात् पुरा प्रागेव—इति सा०।५. अत्र सूर्यरूपाग्निदृष्टान्तेन राजप्रजाजनकृत्यमाहेति ऋग्भाष्ये द०।