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Samveda/83

त्वेषस्ते धूम ऋण्वति दिवि संच्छुक्र आततः । सूरो न हि द्युता त्वं कृपा पावक रोचसे॥८३

Veda : Samveda | Mantra No : 83

In English:

Seer : bharadvaajo baarhaspatyaH | Devta : agniH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tveShaste dhuuma RRiNvati divi sa.m chChukra aatataH . suuro na hi dyutaa tva.m kRRipaa paavaka rochase.83

Component Words :
tveShaH. te. dhuumaH. RRiNvati. divi .san. shukraH. aatataH.aa.tataH. suuraH. na. hi. dyutaa. tvam . kRRipaa. paavaka. rochase..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा के प्रताप और प्रभाव का वर्णन किया किया गया है।

पदपाठ : त्वेषः। ते। धूमः। ऋण्वति। दिवि ।सन्। शुक्रः। आततः।आ।ततः। सूरः। न। हि। द्युता। त्वम् । कृपा। पावक। रोचसे।३।

पदार्थ : हे परमात्मारूप अग्नि ! (ते) आपका (त्वेषः) दीप्त (धूमः) धूएँ के समान प्रसरणशील शत्रुप्रकम्पक प्रभाव (ऋण्वति) सर्वत्र पहुँचता है, जो (दिवि) आत्माकाश में (आततः) विस्तीर्ण (सन्) होता हुआ (शुक्रः) शुद्धिकारी होता है। हे (पावक) शुद्धिकर्ता परमात्मन् ! (द्युता) दीप्ति से (सूरः न) जैसे सूर्य चमकता है वैसे (हि) निश्चय ही (त्वम्) आप (कृपा) अपने प्रभाव के सामर्थ्य से (रोचसे) रोचमान हो ॥३॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। श्लेष से यज्ञाग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥३॥

भावार्थ : जैसे यज्ञाग्नि का ज्वालाओं से जटिल, प्रदीप्त, सुगन्धित धुआँ आकाश में फैलकर शुद्धिकर्ता और रोगहर्ता होता है, वैसे ही परमात्मा का प्रभाव मनुष्य के आत्मा और हृदय में फैलकर अज्ञान आदि दोषों को कँपानेवाला और शोधक होता है। साथ ही जैसे सूर्य अपने तेज से चमकता है, वैसे परमात्माग्नि अपने प्रभाव-सामर्थ्य से चमकता है ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ परमात्माग्नेः प्रतापः प्रभावश्च वर्ण्यते।

पदपाठ : त्वेषः। ते। धूमः। ऋण्वति। दिवि ।सन्। शुक्रः। आततः।आ।ततः। सूरः। न। हि। द्युता। त्वम् । कृपा। पावक। रोचसे।३।

पदार्थ : हे परमात्माग्ने ! (ते) तव (त्वेषः) दीप्तः। त्विष दीप्तौ। (धूमः) धूमवत् प्रसरणशीलः शत्रुप्रकम्पकः प्रभावः। धूनोति कम्पयतीति धूमः। धूञ् कम्पने धातोः 'इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्' उ० १।१४५ इति मक् प्रत्ययः। (ऋण्वति) सर्वत्र गच्छति, प्रसरति। ऋण्वति गतिकर्मा। निघं० २।४। यः (दिवि) आत्माकाशे (आततः) विस्तीर्णः (सन्) भवन् (शुक्रः) शुद्धिकरः जायते। शुचिर् पूतीभावे धातोर्णिजन्तादौणादिको रन् प्रत्ययः (उ० २।२९)। हे (पावक) शुद्धिकर्तः परमात्मन् ! (द्युता) दीप्त्या। अत्र द्युत दीप्तौ इत्यस्मात् क्विप् प्रत्ययः। (सूरः न) सूर्यः इव (हि) निश्चयेन (त्वम् कृपा) प्रभावसामर्थ्येन। कृपू सामर्थ्ये धातोः निष्पन्नस्य कृप् शब्दस्य तृतीयैकवचने रूपम्। (रोचसे) आरोचमानो भवसि ॥३॥२अत्रोपमालङ्कारः। श्लेषेण यज्ञाग्निपक्षेऽप्यर्थो योज्यः ॥३॥

भावार्थ : यथा यज्ञाग्नेर्ज्वालाजालजटिलः प्रदीप्तः सुगन्धिर्धूम आकाशे प्रसृतः सन् शुद्धिकरो रोगहरश्च जायते, तथैव परमात्मनः प्रभावो मनुष्यस्यात्मनि हृदये च प्रसृतः सन्नज्ञानादिदोषप्रकम्पकः शोधकश्च भवति। अपि च यथा सूर्यः स्वकीयेन तेजसा द्योतते तथा परमात्माग्निः स्वप्रभावसामर्थ्येन रोचते ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ६।२।६, 'सञ्छुक्र' इत्यत्र 'षञ्छुक्र' इति पाठः। अथ० १८।४।५९, ऋषिः अथर्वा, देवता यमः, 'त्वेषस्ते धूम ऊर्णोतु दिविषञ्छुक्र आततः' इति पूर्वार्द्धपाठः।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं भौतिकाग्निविद्याविषये व्याख्यातः।