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Samveda/96

त्वमग्ने वसूरिह रुद्रा आदित्या उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम्॥९६

Veda : Samveda | Mantra No : 96

In English:

Seer : praskaNvaH kaaNvaH | Devta : agniH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tvamagne vasuu.m riha rudraa.m aadityaa.m uta . yajaa svadhvara.m jana.m manujaata.m ghRRitapruSham.96

Component Words :
prati . agne. harasaa. haraH. shrRRiNaahi. vishvataH .pari . yaatudhaanasya .yaatu.dhaanasya.rakShasaH. balam. ni. ubja. viirya m..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में राष्ट्रवासी जन परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं।

पदपाठ : प्रति । अग्ने। हरसा। हरः। श्रृणाहि। विश्वतः ।परि । यातुधानस्य ।यातु।धानस्य।रक्षसः। बलम्। नि। उब्ज। वीर्य म्।५।

पदार्थ : हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (इह) हमारे इस राष्ट्र में (वसून्) धन-धान्य आदि सम्पत्ति से अन्य वर्णों को बसानेवाले उत्कृष्ट वैश्यों को, (रुद्रान्) शत्रुओं को रुलानेवाले वीर क्षत्रियों को, (आदित्यान्) प्रकाशित सूर्यकिरणों के समान विद्याप्रकाश से युक्त ब्राह्मणों को, (उत) और (स्वध्वरम्) शुभ यज्ञ करनेवाले, (मनुजातम्) मनुष्य-समाज के कल्याणार्थ जन्म लेनेवाले, (घृतप्रुषम्) यज्ञाग्नि में अथवा सत्पात्रों में घृत आदि को सींचनेवाले (जनम्) पुत्र को (यज) प्रदान कीजिए ॥६॥अब वसुओं, रुद्रों और आदित्यों के उपर्युक्त अर्थ करने में प्रमाण लिखते हैं। 'वसवः' से वैश्यजन गृहीत होते हैं, क्योंकि यजुर्वेद ८।१८ में वसुओं से धन की याचना की गयी है। रुद्रों से क्षत्रिय अभिप्रेत हैं, क्योंकि रुद्रों का वर्णन वेदों में इस रूप में मिलता है—'हे रुद्र, तेरी सेनाएँ हमसे भिन्न हमारे शत्रु को विनष्ट करें' (ऋ० २।३३।११); 'उस रुद्र के सम्मुख अपनी वाणियों को प्रेरित करो, जिसके पास स्थिर धनुष् है, वेगगामी बाण हैं, जो स्वयं आत्म-रक्षा करने में समर्थ है, किसी से पराजित नहीं होता, शत्रुओं का पराजेता है और तीव्र शस्त्रास्त्रों से युक्त है’ (ऋ० ७।४६।१)। आदित्यों से ब्राह्मण ग्राह्य हैं, क्योंकि तै० संहिता में कहा है कि 'ब्राह्मण ही आदित्य हैं' (तै० सं० १।१।९।८) ॥६॥

भावार्थ : हे जगत्-साम्राज्य के संचालक, देवाधिदेव, परमपिता परमेश्वर ! ऐसी कृपा करो कि हमारे राष्ट्र में धन-दान से सब वर्णाश्रमों का पालन करनेवाले उत्तम कोटि के वैश्य, युद्धों में शत्रुओं को जीतनेवाले वीर क्षत्रिय और आदित्य के समान ज्ञान-प्रकाश से पूर्ण विद्वद्वर ब्राह्मण उत्पन्न हों और सब लोग तरह-तरह के परोपकार-रूप यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाली, मानवसमाज का कल्याण करनेवाली, अग्निहोत्र-परायण, अतिथियों का घृतादि से सत्कार करनेवाली सुयोग्य सन्तान को प्राप्त करें ॥६॥इस दशति में सोम, अग्नि, वरुण, विष्णु आदि विविध नामों से परमेश्वर का स्मरण होने से, परमेश्वर के आश्रय से अंगिरस योगियों की उत्कर्ष-प्राप्ति का वर्णन होने से, परमेश्वर के गुणों का वर्णन करते हुए उससे राक्षसों के संहार तथा राष्ट्रोत्थान के लिए प्रार्थना करने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है।प्रथम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की पाँचवीं दशति समाप्त।यह प्रथम प्रपाठक समाप्त हुआ ॥प्रथम अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ राष्ट्रवासिनः परमात्माग्निं प्रार्थयन्ते।

पदपाठ : प्रति । अग्ने। हरसा। हरः। श्रृणाहि। विश्वतः ।परि । यातुधानस्य ।यातु।धानस्य।रक्षसः। बलम्। नि। उब्ज। वीर्य म्।५।

पदार्थ : हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (इह) अस्माकं राष्ट्रे (वसून्) वासयन्ति धनधान्यादिसम्पत्त्या इतरान् वर्णान् इति वसवः तान् उत्कृष्टवैश्यान्, (रुद्रान्) रोदयन्ति शत्रून् इति रुद्राः वीरक्षत्रियाः तान्, (आदित्यान्) प्रकाशितसूर्यकिरणवद् विद्याप्रकाशयुक्तान् ब्राह्मणान्, (उत) अपि च (स्वध्वरम्) शोभनयज्ञम्। अत्र 'नञ्सुभ्याम्।' अ० ६।२।११९ इत्युत्तरपदस्यान्तोदात्तत्वम्। (मनुजातम्) मनवे मनुष्यसमाजाय तत्कल्याणायेति यावत् जातं गृहीतजन्मानम्। अत्र मन्यतेः 'स्वृ०' उ० १।१० इति उः प्रत्ययः, निच्च। तस्य नित्त्वान्मनुशब्द आद्युदात्तः। समासे च तस्य चतुर्थ्यन्तत्वात् 'क्ते च', अ० ६।२।४५ इति पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः। (घृतप्रुषम्) घृतम् आज्यादिकं प्रुष्णाति अग्नौ सिञ्चति सत्पात्रेषु वा वर्षतीति तम् (जनम्) पुत्रं (यज) प्रदेहि। यजतिरत्र देवपूजासङ्गतिकरणदानेष्विति पाठाद् दानार्थः। संहितायां 'द्व्यचोऽतस्तिङः' अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। वसूँ, रुद्राँ, आदित्याँ इति सर्वत्र 'दीर्घादटि समानपादे।' अ० ८।३।९ इति नकारस्य रुत्वम्, 'आतोऽटि नित्यम्।' अ० ८।३।३ इति पूर्वस्यानुनासिकः।अथ वसुरुद्रादित्यानाम् उक्तार्थेषु प्रमाणम्। वसवो वैश्याः,  'अ॒स्मे ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि॒।' य० ८।१८ इति तत्सकाशाद् वसुप्रार्थनात्। रुद्राः क्षत्रियाः, 'अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मन्निव॑पन्तु सेनाः॑।' ऋ० २।३३।११, 'इमा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। अषा॑ळहाय॒ सह॑मानाय वे॒धसे॑ ति॒ग्मायु॑धाय भरता शृ॒णोतु॑ नः ॥' ऋ० ७।४६।१ इत्यादिरूपेण तेषां सेनानीत्वधनुर्धरत्वादिवर्णनात्। आदित्याः ब्राह्मणाः, 'एते खलु वादित्या यद् ब्राह्मणाः।' तै० सं० १।१।९।८ इति प्रामाण्यात् ॥६॥२

भावार्थ : हे जगत्साम्राज्यसञ्चालक देवाधिदेव परमपितः परमेश्वर ! ईदृशीं कृपां कुरु यदस्माकं राष्ट्रे धनदानेन सर्वान् वर्णाश्रमान् पालयन्तः सद्वैश्याः, युद्धेषु शत्रून् विजेतारो वीराः क्षत्रियाः, आदित्यवज्ज्ञानप्रकाशेन पूर्णा विपश्चिद्वरा ब्राह्मणाश्च स्युः। सर्वे च विविधानां परोपकारयज्ञानामनुष्ठातारं, मानवसमाजस्य कल्याण- कर्तारम्, अग्निहोत्रिणम्, अतिथीनां घृतादिना सत्कर्तारं च सुयोग्यं सन्तानं प्राप्नुयुः ॥६॥अत्र सोमाग्निवरुणविष्णुप्रभृतिर्विविधनामभिः परमेश्वरस्य स्मरणात्, तदाश्रयेण योगिनामङ्गिरसामुत्कर्षप्राप्तिवर्णनात्, परमेश्वरगुणवर्णन- पुरस्सरं राक्षससंहारार्थं राष्ट्रोत्थानार्थं च प्रार्थनाकरणादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्।इति प्रथमे प्रपाठके द्वितीयार्धे पञ्चमी दशतिः।समाप्तश्चायं प्रथमः प्रपाठकः ॥इति प्रथमेऽध्याये दशमः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।४५।१, देवता अग्निर्देवाश्च।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः। तत्र अग्निशब्देन विद्युद्वद् वर्तमानो विद्वान्, वसुशब्देन कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्याः पण्डिताः, रुद्रशब्देन आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्या महाबला विद्वांसः, आदित्यशब्देन च समाचरिताष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्याखण्डितव्रता महाविद्वांसो गृहीताः।