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Samveda/134

भिन्धि विश्वा अप द्विषः परि बाधो जही मृधः। वसु स्पार्हं तदा भर॥१३४

Veda : Samveda | Mantra No : 134

In English:

Seer : trishokaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : bhindhi vishvaa apa dviShaH pari baadho jahii mRRidhaH . vasu spaarha.m tadaa bhara.134

Component Words :
bhindhi. vishvaaH . apa. dviShaH. pari . baadhaH. jahi. mRRidhaH. vasu. spaarham. tat.aa. bhara. . aaapaTaadashati..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और आचार्य से विघ्नों के नाश तथा धन प्रदान करने की प्रार्थना है।

पदपाठ : भिन्धि। विश्वाः । अप। द्विषः। परि । बाधः। जहि। मृधः। वसु। स्पार्हम्। तत्।आ। भर।१० । आ.३८.अ.१६.प.१४२.टा.दशति।४।

पदार्थ : हे इन्द्र ! विद्यावीर, दयावीर, बलवीर परमात्मन् राजन् व आचार्य ! आप (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को और काम, क्रोध, लोभ आदि असुरों तथा मानव राक्षसों की सेनाओं को (अप भिन्धि) विदीर्ण कर दीजिए। (बाधः) बाधक, सन्मार्ग में विघ्न डालनेवाले (मृधः) संग्राम करनेवाले पापों को (परि जहि) सर्वत्र नष्ट कर दीजिए। (तत्) वह प्रसिद्ध (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) सत्य, अहिंसा, आरोग्य, विद्या, सुवर्ण आदि आध्यात्मिक और भौतिक धन (आभर) हमें प्रदान कीजिए ॥१०॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा, राजा और आचार्य की सहायता द्वारा रास्ते से राग, द्वेष, पाप, विघ्न-बाधा आदि को हटाकर और सब प्रकार का धन प्राप्त करके विजयी हों ॥१०॥इस दशति में इन्द्र नामक परमेश्वर आदि के गुणों का वर्णन होने से उसके पास से ऐश्वर्यों की प्रार्थना होने से, उसके प्रति प्रणाम अर्पित होने से और उससे शत्रु-विनाश तथा स्पृहणीय धन की याचना होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥द्वितीय अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ परमात्मा राजाऽऽचार्यश्च विघ्नविनाशाय वसुप्रदानाय च प्रार्थ्यते।

पदपाठ : भिन्धि। विश्वाः । अप। द्विषः। परि । बाधः। जहि। मृधः। वसु। स्पार्हम्। तत्।आ। भर।१० । आ.३८.अ.१६.प.१४२.टा.दशति।४।

पदार्थ : हे इन्द्र ! विद्यावीर, दयावीर, बलवीर परमात्मन् राजन् आचार्य वा ! त्वम् (विश्वाः) समस्ताः (द्विषः२) द्वेषवृत्तीः, कामक्रोधलोभाद्यसुराणां मानवरिपूणां च द्वेष्ट्रीः सेना वा (अप भिन्धि) अपविदारय, (बाधः३) बाधकान्, सन्मार्गे विघ्नकरान्। बाध धातोः क्विपि, द्वितीयाबहुवचने रूपम्। (मृधः४) संग्रामोत्पादकान् पाप्मनः च। मृध इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। पाप्मा वै मृधः। श० ६।३।३।८ (परि जहि) परितो विनाशय। संहितायाम् 'अन्येषामपि दृश्यते' इति दीर्घः। (तत्) प्रसिद्धम् (स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) सत्याहिंसारोग्यविद्यासुवर्णादिकम् आध्यात्मिकं भौतिकं च धनम् (आभर) अस्मभ्यं प्रयच्छ ॥१०॥

भावार्थ : मनुष्यैः परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य च साहाय्येन मार्गाद् रागद्वेषपापविघ्नबाधादिकमपसार्य सर्वविधं धनं च प्राप्य विजेतव्यम् ॥१०॥अत्रेन्द्राख्यस्य परमेश्वरादिकस्य गुणवर्णनात्, ततः सकाशादैश्वर्यप्रार्थनात्, तं प्रति प्रणामार्पणात्, ततः शत्रुविनाशस्य स्पृहणीयवसुप्रदानस्य च याचनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति विज्ञेयम् ॥इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे चतुर्थी दशतिः।इति द्वितीयाध्याये द्वितीयः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।४५।४०, अ० २०।४३।१, साम० १०७०।२. द्विषः द्वेष्ट्रीः शत्रुसेनाः—इति सा०।३. बाधा पीडा। सर्वतो यो बाधां करोति स बाधयति। बाधयतेः क्विप्। बाधः। तान् सर्वतः पीडाकरानित्यर्थः—इति वि०। बाधः, बाधकान्। बाधतेः क्विप्—इति भ०। बाधः हिंसित्रीः मृधः संग्रामान्—इति सा०।४. मृधः संग्रामनाम। मृधं करोति मृधयति। मृधयतेः क्विप्। तान् मृधः संग्रामकारिणः इत्यर्थः—इति वि०। मृधः हिंसकान्—इति भ०।