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Samveda/244

य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः। सन्धाता सन्धिं मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः॥२४४

Veda : Samveda | Mantra No : 244

In English:

Seer : medhaatithi-medhyaatithi kaaNvau | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : ya RRite chidabhishriShaH puraa jatrubhya aatRRidaH . sandhaataa sandhi.m maghavaa puruuvasurniShkartaa vihruta.m punaH.244

Component Words :
yaH. RRite. chit. abhishriShaH.abhi.shriShaH. puraa. jatrubhyaH aatRRidaH.aa. tRRidaH. sandhaataa.sam.dhaataa. sandhim.sam.dhim. maghavaa. puruuvasuH.puru.vasuH. rni Shkartaa.niH.karttaa. vihrutam.vi.hrutam. punariti. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथि-मेध्यातिथि काण्वौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा, जीवात्मा, प्राण और शल्यचिकित्सक का कर्तृत्व वर्णित है।

पदपाठ : यः। ऋते। चित्। अभिश्रिषः।अभि।श्रिषः। पुरा। जत्रुभ्यः आतृदः।आ। तृदः। सन्धाता।सम्।धाता। सन्धिम्।सम्।धिम्। मघवा। पुरूवसुः।पुरु।वसुः। र्नि ष्कर्ता।निः।कर्त्ता। विह्रुतम्।वि।ह्रुतम्। पुनरिति।२ ।

पदार्थ : (यः) जो (अभिश्रिषः) जोड़नेवाले पदार्थ गोंद, सरेस, प्लास्टर आदि के (ऋते चित्) बिना ही (जत्रुभ्यः) गर्दन की हड्डियों पर से (आतृदः) गले के कटने से (पुरा) पहले ही (सन्धिम्) जोड़ने योग्य अवयव को (सन्धाता) जोड़ देता है, अर्थात् शस्त्र आदि से गले के एक भाग के कट जाने पर भी कटे हुए भाग को प्राकृतिक रूप से भरकर पुनः स्वस्थ कर देता है, जिससे सिर कटकर गिरता नहीं, वह (पुरूवसुः) बहुत से शरीरावयवों को यथास्थान बसानेवाला (मघवा) चिकित्सा-विज्ञानरूप धन का धनी परमेश्वर, जीवात्मा, प्राण वा शल्य-चिकित्सक (विह्रुतम्) टेढ़े हुए भी अङ्ग को (पुनः) फिर से (निष्कर्ता) ठीक कर देता है ॥२॥इस मन्त्र में जोड़नेवाले द्रव्य रूप कारण के बिना ही जोड़ने रूप कार्य की उत्पत्ति का वर्णन होने से विभावना अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थ : अहो, परमेश्वर की कैसी शरीर-रचना की चतुरता है ! यदि वह जोड़नेवाले द्रव्य गोंद आदि के बिना ही बीच में जोड़ लगाकर सिर को धड़ के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़ न देता तो कभी भी कहीं भी सिर धड़ से अलग होकर गिर जाता। यह भी परमेश्वर का ही कर्तृत्व है कि शरीर का कोई भी अङ्ग यदि घायल या टेढ़ा हो जाता है तो जीवात्मा और प्राण की सहायता से तथा शरीर की स्वाभाविक क्रिया से फिर घाव भर जाता है और टेढ़ा अङ्ग सीधा हो जाता है। कुशल शल्य-चिकित्सक भी इस कर्म में परमेश्वर का अनुकरण करता है। युद्ध में यदि शत्रु के शस्त्र-प्रहार से किसी योद्धा का गले का एक भाग कट जाता है तो वह कटेभाग को सुई से सीकर और ओषधि का लेप करके पुनः स्वस्थ कर देता है। दुर्घटना आदि से यदि किसी का अङ्ग विकृत या टेढ़ा हो जाता है तो उसे भी वह उचित उपायों से ठीक कर देता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथि-मेध्यातिथि काण्वौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ परमात्मनः जीवात्मनः प्राणस्य शल्यचिकित्सकस्य च कर्तृत्वं वर्णयन्नाह।

पदपाठ : यः। ऋते। चित्। अभिश्रिषः।अभि।श्रिषः। पुरा। जत्रुभ्यः आतृदः।आ। तृदः। सन्धाता।सम्।धाता। सन्धिम्।सम्।धिम्। मघवा। पुरूवसुः।पुरु।वसुः। र्नि ष्कर्ता।निः।कर्त्ता। विह्रुतम्।वि।ह्रुतम्। पुनरिति।२ ।

पदार्थ : (यः अभिश्रिषः२) संश्लेषणद्रव्यात् (ऋते चित्) विनैव (जत्रुभ्यः३) ग्रीवास्थिभ्यः (आतृदः) आतर्दनात् कण्ठच्छेदात्। हिंसार्थात् तृदधातोः ‘सृपितृदोः कसुन्’ अ० ३।४।१७ इति भावलक्षणे कसुन् प्रत्ययः। (पुरा) पूर्वमेव (सन्धिम्) सन्धातव्यम् अवयवम् (सन्धाता) संयोजयिता भवति, शस्त्रादिना कृत्तेऽपि कण्ठैकदेशे कृत्तं भागं प्राकृतिकरूपेण संपूर्य पुनः स्वस्थं करोति, येन शीर्षपतनं न भवतीत्यर्थः। सः (पुरूवसुः) बहूनां शरीराङ्गानाम् यथास्थानं वासयिता (मघवा) चिकित्साविज्ञानरूपधनसम्पन्नः इन्द्रः परमेश्वरः जीवः प्राणः शल्यचिकित्सको वा। मघमिति धननाम। निघं० २।१०। ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’ अ० ५।२।१२२ वा० इति वनिप्। (विह्रुतम्४) वक्रीभूतमपि अङ्गम्। ह्वृ कौटिल्ये, निष्ठायां ‘ह्रु ह्वरेश्छन्दसि’ अ० ७।२।३१ इति धातोः ह्रुः आदेशः। (पुनः) भूयोऽपि (निष्कर्ता) संस्कर्ता भवति ॥२॥अत्र संश्लेषणद्रव्यरूपकारणाभावेऽपि सन्धानरूपकार्योत्पत्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारः ॥२॥

भावार्थ : अहो परमेश्वरस्य कीदृशं शरीररचनाचातुर्यम्। यद्यसौ संश्लेषणद्रव्येण विनैव मध्ये सन्धिं कृत्वा शिरः कबन्धेन सुदृढं न समयोजयिष्यत् तर्हि कदापि क्वचिदपि शिरः कबन्धाच्छिन्नं भूत्वा पृथगभविष्यत्। एतदपि परमेश्वरस्यैव कर्तृत्वं यच्छरीरस्य किमप्यङ्गं यदि कदाचिद् विद्धं वक्रं वा जायते तदा जीवात्मनः प्राणस्य च साहाय्येन शरीरस्य स्वाभाविकक्रियया च पुनरपि तत् प्ररोहति प्रकृतिं चापद्यते। कुशलः शल्यचिकित्सकोऽप्येतस्मिन् कर्मणि परमेश्वरमनुकरोति। संग्रामे यदि शत्रोः शस्त्रप्रहारेण कस्यचिद् योद्धुर्गलैकदेशः कृत्यते तदा स कृत्तं भागं सूच्या संसीव्यौषधिं संलिप्य च पुनः स्वस्थं करोति। दुर्घटनादिकारणाद् यदि कस्यचिदङ्गं विकृतं वक्रं वा जायते तदा तदप्युचितैरुपायैः स संस्करोति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।१।१२। अथ० १४।२।४७ ऋषिका सूर्याशावित्री, देवता आत्मा।२. अभिश्लिषः अभिश्लेषकात् श्लेष्मणः। येन छिन्नं संश्लिष्यते तत् श्लेष्म—इति भ०।३. जतृभ्यः ग्रीवानाडीभ्य इत्यर्थः—इति वि०। जतृभ्यः असंग्रीवाभ्यां मध्ये नाडीभ्यः—इति भ०। जत्रुभ्यः ग्रीवाभ्यः—इति सा०।४. विह्रुतम्। विहुतस्य इतश्चेतश्च विक्षिप्तावयवस्य भग्नस्येत्यर्थः—इति वि०। विच्छिन्नम्—इति भ०, सा०।