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Samveda/272

वयमेनमिदा ह्योपीपेमेह वज्रिणम्। तस्मा उ अद्य सवने सुतं भरा नूनं भूषत श्रुते॥२७२

Veda : Samveda | Mantra No : 272

In English:

Seer : kali praagaathaH | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : vayamenamidaa hyopiipemeha vajriNam . tasmaa u adya savane suta.m bharaa nuuna.m bhuuShata shrute.272

Component Words :
vayam. enam. idaa. hyaH. apiipema. iha. vajriNam. tasmai. u. adya. a.dya .savane. sutam. bhara. aa.nuunam. bhuuShata. shrute.. aaapakodashati..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कलि प्रागाथः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा का विषय वर्णित है।

पदपाठ : वयम्। एनम्। इदा। ह्यः। अपीपेम। इह। वज्रिणम्। तस्मै। उ। अद्य। अ।द्य ।सवने। सुतम्। भर। आ।नूनम्। भूषत। श्रुते।१०। आ.५१.अ.१६.प.१८९.को.दशति।८।

पदार्थ : प्रथम—अध्यात्म पक्ष में। (वयम्) हम उपासक लोग (वज्रिणम्) दुर्जनों वा दुर्गुणों के प्रति वज्रधारी अर्थात् उनके विनाशक, (एनम्) प्रसिद्ध गुणोंवाले इस इन्द्र परमेश्वर को (इदा) इस समय और (ह्यः) कल (इह) इस उपासना-यज्ञ में (अपीपेम) स्तुतिगान से रिझा चुके हैं। हे भाई ! तू भी (तस्मै उ) उस इन्द्र परमेश्वर के लिए (अद्य) आज (सवने) अपने जीवन-यज्ञ में (सुतम्) श्रद्धारूप सोमरस को (भर) हृदय में धारण कर अथवा अर्पित कर। हे साथियो ! तुम सब भी (नूनम्) निश्चय ही (श्रुते) वेदादि द्वारा उसकी महिमा सुनी जाने पर, उसे (आभूषत) स्तोत्ररूप उपहारों से अलंकृत करो ॥द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (वयम्) हम लोगों ने (वज्रिणम्) दुष्ट शत्रुओं तथा चोर, ठग, लुटेरों आदियों के प्रति दण्डधारी (एनम्) इस अपने सम्राट् को (इदा) वर्तमान काल में, और (ह्यः) भूतकाल में (इह) इस राष्ट्र-यज्ञ में (अपीपेम) कर-प्रदान द्वारा बढ़ाया है। हे भाई ! तू भी (तस्मै उ) उस सम्राट् के लिए (अद्य) आज (सवने) राष्ट्ररूप यज्ञ में (सुतम्) अपनी आमदनी की राशि में से पृथक् किये हुए राजदेय कर को (भर) प्रदान कर। हे दूसरे प्रजाजनों ! तुम भी (नूनम्) निश्चयपूर्वक (श्रुते) राजाज्ञा के सुनने पर, राजा को (आभूषत) अपना-अपना देय अंश देकर अलङ्कृत करो ॥१०॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥

भावार्थ : सब मनुष्यों को चाहिए कि दुर्जनों और दुर्गुणों के विनाशक तथा सज्जनों और सद्गुणों के पोषक परमेश्वर की उपासना करें। उसी प्रकार दुष्ट शत्रुओं, चोर, लम्पट, ठग, लुटेरे आदियों तथा अशान्ति फैलानेवालों को दण्ड देनेवाले और सज्जनों तथा शान्ति के प्रेमियों को बसानेवाले सम्राट् का भी कर (टैक्स) देकर सम्मान करना चाहिए ॥१०॥इस दशति में इन्द्र के गुणों का वर्णन करके उसकी महिमा गाने की प्रेरणा होने से, उससे गृह आदि की याचना होने से, उसका आह्वान होने से और इन्द्र नाम से राजा आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥तृतीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥तृतीय अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : कलि प्रागाथः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ परमात्मविषयो राजविषयश्चोच्यते।

पदपाठ : वयम्। एनम्। इदा। ह्यः। अपीपेम। इह। वज्रिणम्। तस्मै। उ। अद्य। अ।द्य ।सवने। सुतम्। भर। आ।नूनम्। भूषत। श्रुते।१०। आ.५१.अ.१६.प.१८९.को.दशति।८।

पदार्थ : प्रथमः—अध्यात्मपरः। (वयम्) उपासकाः (एनम्) एतं विश्रुतगुणम् (वज्रिणम्) दुर्जनेषु दुर्गुणेषु वा वज्रधारिणं, स्वशक्त्या तेषां विनाशकमित्यर्थः, इन्द्रं परमेश्वरम् (इदा) इदानीम्। ‘तयोर्दार्हिलौ च छन्दसि। अ० ५।३।२०’ इति इदम् शब्दात् कालेऽर्थे सप्तम्या दा आदेशः। (ह्यः) गतदिवसे च (इह) अस्मिन् उपासनायज्ञे (अपीपेम) स्तुतिगानेन स्वहृदि अवर्धयाम, प्रसादितवन्तः इत्यर्थः। ओप्यायी वृद्धौ धातोर्णिजन्तात् युङ्लुकि प्यायः पी आदेशे रूपम्। हे भ्रातः ! त्वमपि (तस्मै उ) तस्मै इन्द्राय परमेश्वराय खलु (अद्य) अस्मिन् दिने (सवने) जीवनयज्ञे (सुतम्) श्रद्धारूपं सोमरसम् (भर) हृदये धारय अर्पय वा। भृञ् भरणे भ्वादेः हृञ् हरणे इत्यस्य वा रूपम्। हे सखायः ! यूयम् सर्वेऽपि (नूनम्) निश्चयेन (श्रुते) वेदादिद्वारा तन्महिम्नि श्रुते सति (आभूषत तं) स्तोत्ररूपैरुपहारैरलंकुरुत तेन स्वहृदयं वा अलंकुरुत। भूष अलङ्कारे, भ्वादिः ॥अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। (वयम्) जनाः (वज्रिणम्) दुष्टेषु शत्रुषु तस्करवञ्चकलुण्ठकादिषु च वज्रहस्तं, दण्डधारिणम् (एनम्) इन्द्रं सम्राजम् (इदा) इदानीं वर्तमानकाले (ह्यः) गते च काले (इह) अस्मिन् राष्ट्रयज्ञे (अपीपेम) करप्रदानेन वर्द्धितवन्तः। हे (भ्रातः) त्वमपि (तस्मै उ) तस्मै सम्राजे (अद्य) अद्यतने काले (सवने) राष्ट्रयज्ञे (सुतम्) स्वकीयात् आयराशेरभिषुतं पृथक्कृतं राजदेयं करम् (भर) प्रदेहि। हे इतरे प्रजाजनाः ! यूयमपि (नूनम्) निश्चयेन (श्रुते) तदादेशे आकर्णिते सति, तम् (आभूषत) स्वस्वदेयांशदानेन अलंकुरुत ॥१०॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥

भावार्थ : सर्वैर्मनुष्यैर्दुर्जनानां दुर्गुणानां च विनाशकः सज्जनानां सद्गुणानां च पोषकः परमेश्वर उपासनीयः। तथैव दुष्टानां रिपूणां, चौरलम्पटप्रतारकलुण्ठकादीनाम्, अशान्तिप्रसारकाणां च दण्डयिता सज्जनानां शान्तिप्रियाणां च निवासकः सम्राडपि सर्वैः करप्रदानेन सम्माननीयः ॥१०॥अत्रेन्द्रस्य गुणानुपवर्ण्य तन्महिमानं गातुं प्रेरणात्, ततो गृहादिकस्य याचनात्, तस्याह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना नृपादीनां चापि वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्ति ॥इति तृतीये प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः।इति तृतीयाध्याये चतुर्थः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।६६।७, अथ० २०।९७।१, साम० १६९१।