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Samveda/296

न त्वा बृहन्तो अद्रयो वरन्त इन्द्र वीडवः। यच्छिक्षसि स्तुवते मावते वसु न किष्टदा मिनाति ते॥२९६

Veda : Samveda | Mantra No : 296

In English:

Seer : nodhaa gautamaH | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : na tvaa bRRihanto adrayo varanta indra viiDavaH . yachChikShasi stuvate maavate vasu na kiShTadaa minaati te.296

Component Words :
na. tvaa . bRRihantaH. adrayaH.a.drayaH. varante. indra . viiDavaH. yat. shikShasi. stuvate. maavate. vasu. na. kiH . tat. aa. minaati. te. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नोधा गौतमः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में परमेश्वर का दान करने का धर्म वर्णित है।

पदपाठ : न। त्वा । बृहन्तः। अद्रयः।अ।द्रयः। वरन्ते। इन्द्र । वीडवः। यत्। शिक्षसि। स्तुवते। मावते। वसु। न। किः । तत्। आ। मिनाति। ते। ४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (बृहन्तः) विशाल (वीडवः) दृढ (अद्रयः) पर्वत भी (त्वा) तुझे (न) नहीं (वरन्त) रोक सकते हैं, (यत्) जब कि तू (मावते) मुझ जैसे (स्तुवते) स्तोता जन के लिए (वसु) आध्यात्मिक और भौतिक धन (शिक्षसि) देता है। (तत्) उस तेरे दानरूप कर्म को (न किः) कोई भी नहीं (आ मिनाति) नष्ट कर सकता है ॥४॥

भावार्थ : परमेश्वर का जो गुण-कर्म-स्वभाव है, उसके फलीभूत होने में संसार की कोई भी बाधा रुकावट नहीं डाल सकती ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : नोधा गौतमः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ परमेश्वरस्य दानधर्मत्वं वर्णयति।

पदपाठ : न। त्वा । बृहन्तः। अद्रयः।अ।द्रयः। वरन्ते। इन्द्र । वीडवः। यत्। शिक्षसि। स्तुवते। मावते। वसु। न। किः । तत्। आ। मिनाति। ते। ४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (बृहन्तः) विशालाः (वीडवः) दृढाः (अद्रयः) पर्वता अपि (त्वा) त्वाम् (न) नैव (वरन्ते) निवारयितुं शक्नुवन्ति, (यत्) यदा, त्वम् (मावते) मत्सदृशाय। अस्मच्छब्दात् ‘युष्मदस्मदोः सादृश्ये वतुब् वाच्यः’ वा० इति सादृश्यार्थे वतुप्। (स्तुवते) स्तोत्रे जनाय (वसु) आध्यात्मिकं भौतिकं च धनम् (शिक्षसि) प्रयच्छसि। शिक्षतिः दानकर्मा। निघं० ३।२०। (तत्) तत् ते दानरूपं कर्म (न किः) न कश्चित् (आ मिनाति) हिनस्ति। मीञ् हिंसायाम्। ‘मीनातेर्निगमे। अ० ७।३।८’ इति धातोर्ह्रस्वत्वम् ॥४॥

भावार्थ : परमेश्वरस्य यो गुणकर्मस्वभावोऽस्ति तं फलीभवन्तं संसारस्य कापि बाधा न निरोद्धुं शक्नोति ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।८८।३ ‘यच्छिक्षसि’ इत्यत्र ‘यद्दित्ससि’ इति पाठः।