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Samveda/326

त्व ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभवः शत्रुरिन्द्र। गूढे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः॥३२६

Veda : Samveda | Mantra No : 326

In English:

Seer : dyutaano maarutaH | Devta : indraH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tva.m ha tyatsaptabhyo jaayamaano.ashatrubhyo abhavaH shatrurindra . guuDhe dyaavaapRRithivii anvavindo vibhumadbhyo bhuvanebhyo raNa.m dhaaH.326

Component Words :
tva.m. ha. tyat. saptabhyaH. jaayamaanaH.ashatrubhyaH.a.shatrubhyaH. abhavaH. shatruH. indra. guuDheiti. dyaavaa. pRRithiviiiti. anu. avindaH. vibhumadbhyaH.vi.bhumadbhyaH. bhuvanebhyaH. raNa.m. dhaaH..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : द्युतानो मारुतः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा के महान् कर्मों का वर्णन किया गया है।

पदपाठ : त्वं। ह। त्यत्। सप्तभ्यः। जायमानः।अशत्रुभ्यः।अ।शत्रुभ्यः। अभवः। शत्रुः। इन्द्र। गूढेइति। द्यावा। पृथिवीइति। अनु। अविन्दः। विभुमद्भ्यः।वि।भुमद्भ्यः। भुवनेभ्यः। रणं। धाः।४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) शूरवीर परमात्मन् ! (त्वं ह) आप ही (त्यत्) उस, आगे कहे जानेवाले महान् कर्म को करते हो। किस कर्म को, यह बताते हैं। (जायमानः) उपासक के हृदय में प्रकट होते हुए आप (अशत्रुभ्यः) जिनका आपके अतिरिक्त अन्य कोई विनाशक नहीं है, ऐसे (सप्तभ्यः) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर तथा दुर्भाषण इन सात राक्षसों को मारने के लिए, उनके (शत्रुः) शत्रु (अभवः) होते हो। आप ही (गूढे) कारण-भूत पञ्चभूतों के अन्दर छिपे हुए (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक को (अन्वविन्दः) कार्यावस्था में लाते हो। इस प्रकार (विभुमद्भ्यः भुवनेभ्यः) वैभवयुक्त लोक-लोकान्तरों को पैदा करने के लिए, आप (रणम्) संग्राम (धाः) करते हो । अभिप्राय यह है कि जैसे संग्रामों में शूरता का प्रयोग किया जाता है, वैसे ही शूरता का प्रयोग करके आपने प्रकृति से महत् तत्त्व, महत् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा तथा मन सहित दस इन्द्रियों, पञ्चतन्मात्राओं से पञ्चभूत और पञ्चभूतों से द्यावापृथिवी आदि लोकलोकान्तरों को और प्रजाओं को उत्पन्न किया। उत्तरोत्तर सृष्टि के लिए प्रकृति आदि में जो विक्षोभ उत्पन्न किया जाता है, उसी को यहाँ रण की संज्ञा दी है ॥४॥

भावार्थ : परमात्मा ही काम, क्रोध आदि अन्तः शत्रुओं को नष्ट करता है। उसी ने प्रकृति के गर्भ से महत् आदि के क्रम से तरह-तरह की विचित्रताओं से युक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह आदि लोक-लोकान्तरों में विभक्त, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति आदि से समृद्ध और पहाड़, झरने, नदी, तालाब, सागर आदि से अलङ्कृत सृष्टि उत्पन्न की है। इस कारण उसका गौरव-गान हमें मुक्त कण्ठ से करना चाहिए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : द्युतानो मारुतः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथ परमात्मनो महान्ति कर्माणि वर्ण्यन्ते।

पदपाठ : त्वं। ह। त्यत्। सप्तभ्यः। जायमानः।अशत्रुभ्यः।अ।शत्रुभ्यः। अभवः। शत्रुः। इन्द्र। गूढेइति। द्यावा। पृथिवीइति। अनु। अविन्दः। विभुमद्भ्यः।वि।भुमद्भ्यः। भुवनेभ्यः। रणं। धाः।४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) शूर परमात्मन् ! (त्वम् ह) त्वं खलु (त्यत्) तत्, अग्रे प्रोच्यमानं महत् कर्म कृतवानिति शेषः। किं तत् कर्म इत्युच्यते। (जायमानः) उपासकस्य हृदये प्रकटीभवन् त्वम् (अशत्रुभ्यः) न विद्यते त्वद्भिन्नः कोऽपि शत्रुः शातयिता येषां तेभ्यः (सप्तभ्यः) कामक्रोधलोभमोहमदमत्सरदुर्वचनरूपेभ्यः सप्तसंख्यकेभ्यः२ असुरेभ्यः, तान् हन्तुमित्यर्थः, तेषाम् (शत्रुः) रिपुः (अभवः) अजायथाः। किं च, त्वमेव (गूढे) कारणावस्थायां निलीने (द्यावापृथिवी) द्युलोकं पृथिवीलोकं च (अन्वविन्दः) कार्यावस्थायाम् अलभथाः। एवम् (विभुमद्भ्यः भुवनेभ्यः) वैभवयुक्तानि भुवनानि जनयितुमित्यर्थः ‘क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः’ अ० २।३।१४ इति चतुर्थी। (रणं) संङ्ग्रामं (धाः) कृतवानसि। यथा संग्रामे शौर्यं प्रयुज्यते तथैव शौर्यं प्रयुज्य त्वं प्रकृतेर्महत्तत्वं, महतोऽहङ्कारम्, अहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राणि मनःसहितानि दशेन्द्रियाणि च, पञ्चतन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि, पञ्चभूतेभ्यश्च द्यावापृथिव्यादीनि लोकलोकान्तराणि प्रजाश्च जनयामासिथेति विज्ञेयम्। उत्तरोत्तरं सृष्ट्यर्थँ महदाद्युत्पादयितुं प्रकृत्यादौ परमात्मद्वारा यो विक्षोभः क्रियते स एवात्र रणसंज्ञायाऽभिहितः ॥४॥

भावार्थ : परमात्मैव कामक्रोधादीन् अन्तःशत्रून् हिनस्ति, तेनैव प्रकृतेर्गर्भान्महदादिक्रमेण विविधवैचित्र्ययुक्ता सूर्यनक्षत्रग्रहोपग्रहादिलोक- लोकान्तरविभक्ता, स्वेदजाण्डजोद्भिज्जजरायुजजीवजन्तुवृक्षवनस्पत्यादि- समृद्धा गिरिनिर्झरसरित्सरोवरसागराद्यलंकृता सृष्टिजनितेति तद्गौरवं मुक्तकण्ठेनास्माभिर्गेयम् ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९६।१६, अथ० २०।१३७।१०, उभयत्र ऋषिः तिरश्चीर्द्युतान आङ्गिरसो वा।२. इन्द्रेण क्रियमाणः सप्तासुराणां वधः ऋग्वेदे एवं प्रोक्तः—उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्। सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ॥—ऋ० ७।१०४।२२, समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया ॥—ऋ० १।२९।५ इति।