Samveda/354
आ त्वा रथं यथोतये सुम्नाय वर्तयामसि। तुविकूर्मिमृतीषहमिन्द्र शविष्ठ सत्पतिम्॥३५४
Veda : Samveda | Mantra No : 354
In English:
Seer : priyamedhaH aa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : aa tvaa ratha.m yathotaye sumnaaya vartayaamasi . tuvikuurmimRRitiiShahamindra.m shaviShTha satpatim.354
Component Words : aa. tvaa. ratham. yathaa. uutaye. sumnaaya. vartayaamasi. tuvikuurmim.tuvi.kuurmim. RRitiiShaham.RRitii.saham.indram. shaviShTha. satpatim .sat . patim..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : प्रियमेधः आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और राजा को सम्बोधित किया गया है।
पदपाठ : आ। त्वा। रथम्। यथा। ऊतये। सुम्नाय। वर्तयामसि। तुविकूर्मिम्।तुवि।कूर्मिम्। ऋतीषहम्।ऋती।सहम्।इन्द्रम्। शविष्ठ। सत्पतिम् ।सत् । पतिम्।३।
पदार्थ : हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) सांसारिक दुःख, विघ्न आदियों से रक्षा के लिए, और (सुम्नाय) ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के लिए, हम (तुविकूर्मिम्) बहुत-से कर्मों के कर्ता, (ऋतीषहम्) शत्रु-सेनाओं के पराजयकर्ता, (सत्पतिम्) सदाचारियों के पालनकर्ता (त्वा) तुझ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमात्मा वा राजा को (आवर्तयामसि) अपनी ओर प्रवृत्त करते हैं, (यथा) जैसे (ऊतये) शत्रुओं से रक्षा के लिए और (सुम्नाय) यात्रा-सुख के लिए (तूविकूर्मिम्) व्यापार आदि द्वारा बहुत-से धनों को उत्पन्न करने में साधनभूत, (ऋतीषहम्) वायु, वर्षा आदि के आघात को सहनेवाले, (सत्पतिम्) बैठे हुए श्रेष्ठ यात्रियों के पालन के साधनभूत (रथम्) भूयान, जलयान, विमान आदि को लोग प्रवृत्त करते हैं ॥३॥इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : जैसे हवा, धूप, वर्षा आदि से बचाव के लिए और यात्रासुख के लिए रथ प्राप्तव्य होता है, वैसे ही रोग आदि से होनेवाले दुःखों से त्राणार्थ और शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, वर्णाश्रमधर्म की प्रतिष्ठा, शान्तिस्थापना आदि द्वारा योगक्षेम के सुखप्रदानार्थ राजा को तथा त्रिविध तापों से त्राणार्थ और मोक्ष-सुख आदि के प्रदानार्थ परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : प्रियमेधः आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा राजा च सम्बोध्यते।
पदपाठ : आ। त्वा। रथम्। यथा। ऊतये। सुम्नाय। वर्तयामसि। तुविकूर्मिम्।तुवि।कूर्मिम्। ऋतीषहम्।ऋती।सहम्।इन्द्रम्। शविष्ठ। सत्पतिम् ।सत् । पतिम्।३।
पदार्थ : हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! (ऊतये) दुःखविघ्नादिभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) ऐहिकपारलौकिकसुखाय च वयम् (तुविकूर्मिम्२) बहूनां कर्मणां कर्तारम्। तुवीति बहुनाम निघं० ३।१। कूर्मिः करोतेर्बाहुलकादौणादिको मिः प्रत्ययः। (ऋतीषहम्३) ऋतीः शत्रुसेनाः सहते अभिभवतीति तम्, (सत्पतिम्) सदाचारिणां पालकम् (त्वा) त्वाम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानं राजानं वा (आवर्तयामसि) अनुकूलं प्रवर्तयामः, (यथा) येन प्रकारेण (ऊतये) शत्रुभ्यो रक्षणाय (सुम्नाय) यात्रासुखाय च (तुविकूर्मिम्) बहूनां धनानां व्यापारादिद्वारा उपार्जने साधनभूतम्, (ऋतीषहम्) वायुवृष्ट्याद्याघातसहम्, (सत्पतिम्) सताम् उपविष्टानां यात्रिणां पालनसाधनीभूतम् (रथम्) भूयान-जलयान-विमानादिकम्, जनाः आवर्तयन्ति प्रवृत्तं कुर्वन्ति ॥३॥अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थ : यथा वातातपवर्षादिभ्यस्त्राणाय यात्रासुखाय च रथः प्राप्तव्यो भवति, तथैव रोगादिजन्येभ्यो दुःखेभ्यस्त्राणाय शिक्षाचिकित्सान्यायवर्णाश्रमधर्मप्रतिष्ठा- शान्तिस्थापनादिभिर्योगक्षेमसुखप्रदानाय च राजा, त्रिविधतापेभ्यस्त्राणाय मोक्षसुखप्रदानाय च परमात्मा प्राप्तव्यः ॥३॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।६८।१ ‘मिन्द्र शविष्ठ सत्पते’ इति पाठः। साम० १७७१।२. (तूविकूर्मिः) तुविर्बहुविधः कूर्मिः कर्मयोगो यस्य सः—इति ऋ० ३।३०।३ भाष्ये द०।३. ऋतयः सेनाः गन्तृत्वात्। ता यः सहते अभिभवति सः ऋतीषाट्। तम् ऋतीषहम्। परकीयानां सेनानाम् अभिभवितारमित्यर्थः—इति वि०। ऋतीनाम् अरीणां सोढारम् अभिभवितारम्—इति भ०। हिंसकानाम् अभिभवितारम्—इति सा०।