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Samveda/400

यो न इदमिदं पुरा प्र वस्य आनिनाय तमु व स्तुषे। सखाय इन्द्रमूतये॥४००

Veda : Samveda | Mantra No : 400

In English:

Seer : saubhariH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : kakup | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yo na idamida.m puraa pra vasya aaninaaya tamu va stuShe . sakhaaya indramuutaye.400

Component Words :
yaH . naH . idamidam . idam. idam. puraa. pra. vasyaH. aaninaaya.aa.ninaaya. tam.u . vaH. stuShe. sakhaayaH.sa.khaayaH. indram. uutaye..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : सौभरि: काण्व: | देवता : इन्द्रः | छन्द : ककुप् | स्वर : ऋषभः

विषय : अगले मन्त्र में परमेश्वर की दानशीलता का वर्णन है।

पदपाठ : यः । नः । इदमिदम् । इदम्। इदम्। पुरा। प्र। वस्यः। आनिनाय।आ।निनाय। तम्।उ । वः। स्तुषे। सखायः।स।खायः। इन्द्रम्। ऊतये।२।

पदार्थ : (यः) जो इन्द्र जगदीश्वर (पुरा) पहले, सृष्टि के आदि में (इदम्-इदम्) इस सब अग्नि, सूर्य, वायु, विद्युत्, बादल, नदी, सागर, चाँदी, सोना आदि (वस्यः) अतिशय निवासक पदार्थ-समूह को (नः) हमारे-तुम्हारे लिए (आ निनाय) लाया था, (तम् उ) उसी (इन्द्रम्) जगदीश्वर की, हे (सखायः) मित्रो ! मैं (वः) तुम्हारी और अपनी (ऊतये) रक्षा के लिए (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥२॥

भावार्थ : अनेक बहुमूल्य पदार्थ निःशुल्क ही सबको देनेवाले ब्रह्माण्ड के अधिपति परमेश्वर की सबको कृतज्ञतापूर्वक आराधना करनी चाहिए ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : सौभरि: काण्व: | देवता : इन्द्रः | छन्द : ककुप् | स्वर : ऋषभः

विषय : अथ परमेश्वरस्य दानशीलत्वं प्रतिपादयति।

पदपाठ : यः । नः । इदमिदम् । इदम्। इदम्। पुरा। प्र। वस्यः। आनिनाय।आ।निनाय। तम्।उ । वः। स्तुषे। सखायः।स।खायः। इन्द्रम्। ऊतये।२।

पदार्थ : (यः) इन्द्रनामा जगदीश्वरः (पुरा) पूर्वं सृष्ट्यादौ (इदम्-इदम्) सर्वमेतद् अग्निसूर्यवायुविद्युत्पर्जन्यसरित्सागररजतहिरण्यादिकम् (वस्यः) वसीयः निवासकतरं वस्तुजातम्। वसु प्रातिपदिकाद् अतिशायने ईयसुनि छान्दस ईकारलोपः। (नः) अस्मभ्यं युष्मभ्यं च (प्र आनिनाय) प्रकर्षेण आनीतवान्। अत्र यद्वृत्तत्वान्निघाताभावः। (तम् उ) तमेव (इन्द्रम्) जगदीश्वरम्, हे (सखायः) सुहृदः ! अहम् (वः) युष्माकम् अस्माकं च (ऊतये) रक्षायै (स्तुषे) स्तौमि। ष्टुञ् धातोर्लेटि उत्तमैकवचने रूपमिदम् ॥२॥

भावार्थ : अनेकेषां महार्घाणां पदार्थानां निःशुल्कमेव सर्वेभ्यः प्रदाता ब्रह्माण्डाधिपः परमेश्वरः सर्वैः कृतज्ञतयाऽऽराधनीयः ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।२१।९ ‘व स्तुषे’ इत्यत्र ‘वः स्तुषे’ इति पाठः। अथ० २०।१४।३; ६२।३