Samveda/410
इत्था हि सोम इन्मदो ब्रह्म चकार वर्धनम्। शविष्ठ वज्रिन्नोजसा पृथिव्या निः शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम्॥४१०
Veda : Samveda | Mantra No : 410
In English:
Seer : gotamo raahuugaNaH | Devta : indraH | Metre : pa.mktiH | Tone : pa~nchamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : itthaa hi soma inmado brahma chakaara vardhanam . shaviShTha vajrinnojasaa pRRithivyaa niH shashaa ahimarchannanu svaraajyam. 410
Component Words : itthaa. hi. somaH . it. madaH. brahma. chakaara . vardhanam. shaviShTha. vajrin. ojasaa. pRRithivyaaH. niH. shashaaH. ahim. archan. anu. svaraajyam.sva.raajyam. .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अगले मन्त्र में शरीर और राष्ट्रभूमि से शत्रु को बाहर निकाल देने का विषय है।
पदपाठ : इत्था। हि। सोमः । इत्। मदः। ब्रह्म। चकार । वर्धनम्। शविष्ठ। वज्रिन्। ओजसा। पृथिव्याः। निः। शशाः। अहिम्। अर्चन्। अनु। स्वराज्यम्।स्व।राज्यम्। २।
पदार्थ : (इत्था हि) सचमुच (सोमः) ब्रह्मानन्दरस अथवा वीररस (इत्) निश्चय ही (मदः) हर्षकारी होता है, उससे (ब्रह्म) जीवात्मा वा राजा (वर्धनम्) उन्नति (चकार) करता है। उससे अनुप्राणित होकर हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (वज्रिन्) दुष्टताओं वा दुष्टों पर वज्र-प्रहार करनेवाले जीवात्मन् वा राजन् ! तू (स्वराज्यम्) स्वराज्य की (अनु अर्चन्) अनुकूल अर्चना करता हुआ (ओजसा) अपने बल द्वारा (पृथिव्याः) शरीर से अर्थात् शरीरवर्ती मन, बुद्धि, प्राण व इन्द्रियों से तथा राष्ट्रभूमि से (अहिम्) दुःसंकल्पादिरूप, पापरूप, रोगादिरूप, लुटेरे-चोर-ठग आदि रूप और शत्रुरूप असुर को (निःशशाः) बाहर निकाल दे ॥२॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ : शरीर में आत्मा और राष्ट्र में राजा ब्रह्मानन्द-रस और वीर-रस का पान कर शरीर और राष्ट्र के शत्रुओं को निःशेष करके वाणी के निर्घोष तथा दुन्दुभिघोष के साथ स्वराज्य की अर्चना करें ॥२॥
In Sanskrit:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अथ शरीराद् राष्ट्रभूमेश्च शत्रुं निस्सारयितुमाह।
पदपाठ : इत्था। हि। सोमः । इत्। मदः। ब्रह्म। चकार । वर्धनम्। शविष्ठ। वज्रिन्। ओजसा। पृथिव्याः। निः। शशाः। अहिम्। अर्चन्। अनु। स्वराज्यम्।स्व।राज्यम्। २।
पदार्थ : (इत्था हि) सत्यमेव (सोमः२) ब्रह्मानन्दरसो वीररसो वा (इत्) निश्चयेन (मदः) हर्षकरो भवति, तेन (ब्रह्म३) जीवात्मा राजा वा। संहितायां दीर्घश्छान्दसः। (वर्धनम्) उन्नतिम् (चकार) करोति। तेन अनु प्राणितः सन् हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (वज्रिन्) दुष्टतासु दुष्टेषु वा वज्रप्रहर्तः इन्द्र जीवात्मन् राजन् वा ! त्वम् (स्वराज्यम्) आत्मराज्यम् (अनु अर्चन्) आनुकूल्येन सत्कुर्वन् (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) शरीरात्, शरीरवर्तिभ्यो मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियेभ्यः इत्यर्थः, राष्ट्रभूमेश्च। पृ॑थि॒वी शरीर॑म्। अथ० ५।९।७ इति श्रुतेः पृथिवीति शरीरनाम। (अहिम्) दुःसंकल्पादिरूपं, पापरूपं, रोगादिरूपं, लुण्ठकतस्करवञ्चकादिरूपम्, शत्रुरूपं च असुरम् (निःशशाः४) निर्गमय। निस् पूर्वात् शश प्लुतगतौ धातोर्णिजर्थगर्भात् लेटि सिपि रूपम् ॥२॥ ५अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
भावार्थ : शरीरे जीवात्मा राष्ट्रे च राजा ब्रह्मानन्दरसं वीररसं च पीत्वा शरीरस्य राष्ट्रस्य च शत्रून् निःशेष्य वाङ्निर्घोषेण दुन्दुभिघोषेण च स्वराज्यमर्चताम् ॥२॥
टिप्पणी:१. ऋ० १।८०।१ ‘मदो’ इत्यत्र ‘मदे’ इति पाठः।२. माधवभरतस्वामिसायणाचार्याः ‘सोमे इत्’ इति विच्छिद्य व्याचख्युः। ‘अस्माभिस्तु सोमः इत्’ इति पदपाठोऽनुसृतः।३. अत्रास्माभिः सामपदपाठोऽनुसृतः। ऋग्वेदीयपदपाठे तु अत्र ‘ब्रह्मा’ इति प्राप्यते।४. शश प्लुतावित्यस्येदं रूपम् अन्तर्णीतण्यर्थञ्चात्र द्रष्टव्यम्। निर्गमय भूमौ पातयेत्यर्थः—इति वि०। तदेव भरतस्वामिनोऽभिप्रेतम्।५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘मनुष्याश्चक्रवर्तिराज्यस्य सामग्रीं विधाय पालनं कृत्वा विद्यासुखोन्नतिं कुर्युः’ इति विषये व्याख्यातवान्।