Samveda/412
इन्द्र तुभ्यमिदद्रिवोऽनुत्तं वज्रिन्वीक्यम्। यद्ध त्यं मायिनं मृगं तव त्यन्माययावधीरर्चन्ननु स्वराज्यम्॥४१२
Veda : Samveda | Mantra No : 412
In English:
Seer : gotamo raahuugaNaH | Devta : indraH | Metre : pa.mktiH | Tone : pa~nchamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : indra tubhyamidadrivo.anutta.m vajrinviiryam . yaddha tya.m maayina.m mRRiga.m tava tyanmaayayaavadhiirarchannanu svaraajyam. 412
Component Words : indra. tubhyam. it. adrivaH.a.drivaH. anuttam.a.nuttam. vajrin. viiryam. yat. ha. tyam. maayinam. mRRigam. tava. tyat. maayayaa.avadhiiH.archan. anu. svaraajyam. sva.raajyam..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सेनापति के शौर्य की प्रशंसा की गयी है।
पदपाठ : इन्द्र। तुभ्यम्। इत्। अद्रिवः।अ।द्रिवः। अनुत्तम्।अ।नुत्तम्। वज्रिन्। वीर्यम्। यत्। ह। त्यम्। मायिनम्। मृगम्। तव। त्यत्। मायया।अवधीः।अर्चन्। अनु। स्वराज्यम्। स्व।राज्यम्।४।
पदार्थ : हे (अद्रिवः) मेघयुक्त अन्तरिक्ष के तुल्य विद्यमान अर्थात् मेघयुक्त अन्तरिक्ष जैसे जल बरसाता है, वैसे सुख बरसानेवाले, (वज्रिन्) शत्रुओं को दण्ड देनेवाले (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, राजन् और सेनापते ! (तुभ्यम् इत्) तेरा ही (अ-नुत्तम्) शत्रुओं से अप्रतिहत (वीर्यम्) शौर्य है। (यत्) जो, तू (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य के अनुकूल (अर्चन्) कर्म करता हुआ (त्यम्) उस कुख्यात (मायिनम्) छलादिदोषयुक्त, (मृगम्) पशुतुल्य शत्रु को (मायया) कौशल से (अवधीः) मार गिराता है, (त्यत्) वह कर्म (तव) तेरा ही है, अन्य कोई उस कर्म को नहीं कर सकता ॥४॥इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥४॥
भावार्थ : परमात्मा को स्मरण कर और जीवात्मा, राजा तथा सेनापति को उद्बोधन देकर, उनके द्वारा समस्त आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं का उन्मूलन करके सबको आत्मा और राष्ट्र के स्वराज्य का उपभोग करना चाहिए ॥४॥
In Sanskrit:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अथ परमात्मनो जीवात्मनो नृपतेः सेनापतेर्वा शौर्यं प्रशस्यते।
पदपाठ : इन्द्र। तुभ्यम्। इत्। अद्रिवः।अ।द्रिवः। अनुत्तम्।अ।नुत्तम्। वज्रिन्। वीर्यम्। यत्। ह। त्यम्। मायिनम्। मृगम्। तव। त्यत्। मायया।अवधीः।अर्चन्। अनु। स्वराज्यम्। स्व।राज्यम्।४।
पदार्थ : हे (अद्रिवः) मेघयुक्तमन्तरिक्षमिव विद्यमान, मेघयुक्तमन्तरिक्षं यथा जलं वर्षति तद्वत् सुखवर्षक इत्यर्थः। अद्रिरिति मेघनाम। निघं० १।१०। हे (वज्रिन्) शत्रुषु दण्डधर (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, राजन्, सेनापते वा ! (तुभ्यम् इत्) तवैव। अत्र ‘षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वाच्यम्। अ० २।३।६२’ वा० इति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (अनुत्तम्) शत्रुभिरप्रतिहतम्। न नुत्तम् अनुत्तम्, नुद प्रेरणे। (वीर्यम्) शौर्यम् अस्ति। (यत्) यत् त्वम् (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्यानुकूलम् (अर्चन्) कर्म कुर्वन् (त्यम्) तम् कुख्यातम्, (मायिनम्) छलादिदोषयुक्तम् (मृगम्) पशुतुल्यम् शत्रुम् (मायया) कौशलेन (अवधीः) हंसि। अत्र लडर्थे लुङ्। (तव त्यत्) तवैव तत् अन्यजनदुर्लभं कर्म वर्वर्ति ॥४॥२अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥४॥
भावार्थ : परमात्मानं स्मृत्वा जीवात्मानं, नृपतिं, सेनापतिं च समुद्बोध्य तद्द्वारा निखिलानाभ्यन्तरान् बाह्यांश्च रिपूनुन्मूल्य सर्वैरात्मनो राष्ट्रस्य च स्वराज्यमुपभोक्तव्यम् ॥४॥
टिप्पणी:१. ऋ० १।८०।७ ‘तव त्यत्’ इत्यत्र ‘तमु त्वं’ इति पाठः।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘ये प्रजापालनाय सूर्यवत् स्वबलन्यायविद्याः प्रकाश्य कपटिनो जनान् निबध्नन्ति ते राज्यं वर्द्धयितुं करान् प्राप्तुं च शक्नुवन्तीति’ विषये व्याख्यातवान्।