Samveda/422
भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम्। अथा ते सख्ये अन्धसो वि वो मदे रणा गावो न यवसे विवक्षसे॥४२२
Veda : Samveda | Mantra No : 422
In English:
Seer : vimada aindraH | Devta : somaH | Metre : pa.mktiH | Tone : pa~nchamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : bhadra.m no api vaataya mano dakShamuta kratum . athaa te sakhye andhaso vi vo made raNaa gaavo na yavase vivakShase.422
Component Words : bhadram. naH. api. vaataya. manaH. dakSham. uta. kratum. atha. te. sakhye.sa. khye. andhasaH. vi. vaH. made. raNa. gaavaH . na. yavase. vivakShase..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : विमद ऐन्द्रः | देवता : सोमः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अगले मन्त्र का सोम देवता है। उससे याचना की गयी है।
पदपाठ : भद्रम्। नः। अपि। वातय। मनः। दक्षम्। उत। क्रतुम्। अथ। ते। सख्ये।स। ख्ये। अन्धसः। वि। वः। मदे। रण। गावः । न। यवसे। विवक्षसे।४।
पदार्थ : हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! आप (नः) हमारे लिए (भद्रम्) श्रेष्ठ (मनः) मनोबल, (दक्षम्) शारीरिक बल, (उत) और (क्रतुम्) प्रज्ञान तथा कर्म (अपि वातय) प्राप्त कराओ। (अथ) और (ते) आपके अपने (अन्धसः) शान्तिरस के (सख्ये) सखित्व में, तथा (वः) आपके अपने (मदे) आनन्द में, हमें (वि रण) विशेष रूप से रमाओ, (गावः न) जैसे गौएँ (यवसे) घास में रमती हैं। हे सोम परमात्मन् ! आप (विवक्षसे) महान् हो ॥४॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ : परमेश्वर की उपासना से मनुष्य आत्मा, मन, बुद्धि आदि के बल को और आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं ॥४॥
In Sanskrit:
ऋषि : विमद ऐन्द्रः | देवता : सोमः | छन्द : पंक्तिः | स्वर : पञ्चमः
विषय : अथ सोमो देवता। स प्रार्थ्यते।
पदपाठ : भद्रम्। नः। अपि। वातय। मनः। दक्षम्। उत। क्रतुम्। अथ। ते। सख्ये।स। ख्ये। अन्धसः। वि। वः। मदे। रण। गावः । न। यवसे। विवक्षसे।४।
पदार्थ : हे सोम रसागार परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (भद्रम्) श्रेष्ठम् (मनः) मनोबलम्, (दक्षम्) शारीरं बलम्, (उत) अपि च (क्रतुम्) प्रज्ञानं कर्म च (अपि वातय२) अपि गमय, प्रापय। (अथ) अपि च त्वम् (ते) तव (अन्धसः) शान्तरूपस्य रसस्य (सख्ये) सखित्वे अपि च (वः) तव (मदे आनन्दे (वि रण३) विशेषेण रमय। अत्र पादादित्वान्निघाताभावः। (गावः न) यथा धेनवः (यवसे) घासे रमन्ते तद्वत्। हे सोम परमात्मन् ! त्वम् (विवक्षसे) महान् असि ॥४॥अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
भावार्थ : परमेश्वरोपासनया जनैरात्ममनोबुद्ध्यादिबलमानन्दश्च प्राप्तुं शक्यते ॥४॥
टिप्पणी:१. ऋ० १०।२५।१ ऋषिः विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद् वा वासुक्रः। ‘अथा’, ‘रणा’ इत्यत्र क्रमेण ‘अधा’, ‘रणन्’ इति पाठः। केवलं पूर्वार्द्धः ऋ० १०।२०।१ इत्यत्रापि दृश्यते।२. वात सुखसेवनयोः गतौ च चुरादिः। अपि पूर्वोऽन्यत्रापि प्रयुज्यते, यथा ‘सहस्रं ते स्वपिवात भेषजा’ ऋ० ७।४६।३ इत्यत्र।३. शब्दार्थे पठितो रण धातुः रमणार्थेऽपि भवति, तथा च ‘रणाय रमणीयाय संग्रामाय’ इति (निरु० ४।८) ‘रण रमय’—इति वि०। ‘रणा रमन्तां स्तोतारः’—इति भ०। ‘रणाः प्रीतियुक्ता गावो न’—इति सायणीयं व्याख्यानं तु पदकारविरुद्धम्, पदपाठे ‘रण’ इति पाठात्। दीर्घत्वं तु ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ इति नियमाद् भवति।