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Samveda/435

आविर्मर्या आ वाजं वाजिनो अग्मं देवस्य सवितुः सवम्। स्वर्गा अर्वन्तो जयत॥४३५

Veda : Samveda | Mantra No : 435

In English:

Seer : RRiNa trasadasyuu | Devta : vaajinaH | Metre : pura uShNik | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aavirmaryaa aa vaaja.m vaajino agma.m devasya savituH savam . svargaa.m arvanto jayata.435

Component Words :
aaviH . aa. viH. maryaaH.aa.vaajam. vaajinaH. agman. devasya . savituH. savam. svargaan .svaH.gaan.arvantaH.jayata..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : वाजिनः | छन्द : पुर उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अगले मन्त्र में वाजियों की स्तुति का विषय है।

पदपाठ : आविः । आ। विः। मर्याः।आ।वाजम्। वाजिनः। अग्मन्। देवस्य । सवितुः। सवम्। स्वर्गान् ।स्वः।गान्।अर्वन्तः।जयत।९।

पदार्थ : (वाजिनः) ज्ञानवान् लोग (वाजम्) बल को, और (देवस्य) प्रकाशक (सवितुः) प्रेरक परमात्मा की (सवम्) प्रेरणा को (आ अग्मन्) प्राप्त करते हैं। हे (मर्याः) मनुष्यो ! तुम भी (आविः) अपने आत्मा में बल और परमात्मा की प्रेरणा को प्रकट करो। हे (अर्वन्तः) उद्योगी मनुष्यो ! तुम (स्वर्गान्) सुखमय ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास लोकों को तथा मुक्तिलोकों को (जयत) जीत लो ॥९॥इस मन्त्र में ‘अर्वन्तः’ शब्द के प्रयोग से ‘जैसे घोड़े संग्राम को जीत लेते हैं,’ यह उपमालङ्कार ध्वनित होता है। ‘वाजं, वाजि’ तथा ‘सवि, सव’ में छेकानुप्रास और वकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥९॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि आत्मबल का संचय करके और परमात्मा से सत्प्रेरणा लेकर, शुभ कर्म करके लौकिक तथा पारलौकिक सुख को प्राप्त करें ॥९॥

टिप्पणी :अगले मन्त्र का पवमान सोम देवता है। सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।


In Sanskrit:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : वाजिनः | छन्द : पुर उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अथ वाजिनां स्तुतिः।

पदपाठ : आविः । आ। विः। मर्याः।आ।वाजम्। वाजिनः। अग्मन्। देवस्य । सवितुः। सवम्। स्वर्गान् ।स्वः।गान्।अर्वन्तः।जयत।९।

पदार्थ : (वाजिनः) ज्ञानवन्तो जनाः (वाजम्) बलम्, (देवस्य) प्रकाशकस्य (सवितुः) प्रेरकस्य परमात्मनः (सवम्) प्रेरणां च। षू प्रेरणे, ‘ॠदोरप् अ० ३।३।५७’ इत्यप्। (आ अग्मन्) आप्नुवन्ति। हे (मर्याः) मनुष्याः ! यूयमपि (आविः) स्वात्मनि बलं परमात्मनः प्रेरणां च आविष्कृणुत। हे (अर्वन्तः) उद्योगिनो जनाः ! ऋ गतिप्रापणयोः धातोर्वनिप्प्रत्यये रूपम्। यूयम् (स्वर्गान्) सुखमयान् ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासलोकान् मुक्तिलोकांश्च (जयत) अधिगच्छत ॥९॥अत्र ‘अर्वन्तः’ इति शब्दप्रयोगाद् यथा अश्वाः संग्रामं जयन्तीत्युपमालङ्कारो ध्वन्यते। ‘वाजं, वाजि’, ‘सवि, सव’ इत्यत्र छेकानुप्रासः, वकारस्य चासकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासः ॥९॥

भावार्थ : मनुष्यैरात्मबलं संचित्य परमात्मनः सकाशात् सत्प्रेरणां च गृहीत्वा शुभकर्माणि कृत्वा लौकिक-पारलौकिकसुखं प्राप्तव्यम् ॥९॥

टिप्पणी:अथ पवमानः सोमो देवता। सोमः परमात्मा प्रार्थ्यते।