Samveda/454
अया वाजं देवहित सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः॥४५४
Veda : Samveda | Mantra No : 454
In English:
Seer : bharadvaajo baarhaspatyaH | Devta : indraH | Metre : dvipadaa triShTup | Tone : dhaivataH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : ayaa vaaja.m devahita.m sanema madema shatahimaaH suviiraaH.454
Component Words : ayaa. vaajam. devahitam.deva.hitam. sanema. madema. shatahimaaH .shata.himaaH. suviiraaH.su.viiraaH. .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः
विषय : अगले मन्त्र का देवता इन्द्र है। उससे धनादि की आकांक्षा की गयी है।
पदपाठ : अया। वाजम्। देवहितम्।देव।हितम्। सनेम। मदेम। शतहिमाः ।शत।हिमाः। सुवीराः।सु।वीराः। ८।
पदार्थ : हे इन्द्र परमात्मन्, जीवात्मन् अथवा राजन् ! हम (अया) इस देह से अथवा इस बुद्धि से (देवहितम्) विद्वानों वा इन्द्रियों के लिए हितकर (वाजम्) धन, बल और विज्ञान को (सनेम) प्राप्त करें, और (सुवीराः) उत्तम वीर पुत्रों सहित, हम (शतहिमाः) सौ वर्ष (मदेम) आनन्द लाभ करते रहें ॥८॥
भावार्थ : वही धन, बल और विज्ञान श्रेष्ठ होता है, जो परोपकार में प्रयुक्त हो। उसे पाकर कम से कम सौ वर्ष जीनेवाले सब स्त्री-पुरुष होवें ॥८॥
In Sanskrit:
ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः
विषय : अथेन्द्रो देवता। तस्माद् धनादिकमाशंसते।
पदपाठ : अया। वाजम्। देवहितम्।देव।हितम्। सनेम। मदेम। शतहिमाः ।शत।हिमाः। सुवीराः।सु।वीराः। ८।
पदार्थ : हे इन्द्र परमात्मन् मदीय अन्तरात्मन् राजन् वा ! वयम् (अया२) अनया तन्वा अनया धिया३ वा (देवहितम्४) देवेभ्यो विद्वद्भ्य इन्द्रियेभ्यो वा हितं हितकरम् (वाजम्) धनं बलं विज्ञानं वा (सनेम) लभेमहि, किञ्च (सुवीराः) शोभनवीरोपेताः वयम् (शतहिमाः) शतवर्षाणि (मदेम) हृष्येम ॥८॥५
भावार्थ : तदेव धनं बलं विज्ञानं वा श्रेष्ठं यत् परोपकारे प्रयुज्यते। तत् प्राप्य न्यूनान्न्यूनं शतवर्षजीविनः सर्वे स्त्रीपुरुषा भवेयुः ॥८॥
टिप्पणी:१. ऋ० ६।१७।१५। अथर्ववेदेऽपि १९।१२।१; २०।६३।३, २०।१२४।६ इत्यत्र उत्तरार्द्धत्वेन प्राप्यते।२. (अया) अनया नीत्या इति ऋ० ६।१७।१५ भाष्ये द०। अनया स्तुत्या—इति वि०, भ०, सा०।३. अया धिया वामभाजः स्याम। ऋ० ६।७१।६ इति श्रुतेः।४. देवहितं देवैः स्थापितम्—इति वि०। देवेन इन्द्रेण हितं दत्तम्—इति भ०।५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं कीदृशी राजनीतिर्भवेदिति विषये व्याख्यातवान्।