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Samveda/474

पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्यः पीतये हरे। मरुद्भ्यो वायवे मदः॥४७४

Veda : Samveda | Mantra No : 474

In English:

Seer : dRRiDhachyuta aagastyaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pavasva dakShasaadhano devebhyaH piitaye hare . marudbhyo vaayave madaH.474

Component Words :
pavasva. dakShasaadhanaH .dakSha.saadhanaH. devebhyaH. piitaye. hare. marudbhyaH. vaayave. madaH ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : दृढच्युत आगस्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में आनन्दरस के झरने की प्रार्थना है।

पदपाठ : पवस्व। दक्षसाधनः ।दक्ष।साधनः। देवेभ्यः। पीतये। हरे। मरुद्भ्यः। वायवे। मदः ।८।

पदार्थ : हे (हरे) उन्नति की ओर ले जानेवाले रसागार परब्रह्म ! (दक्षसाधनः) बल के साधक आप (देवेभ्यः पीतये) विद्वानों द्वारा पान के लिए (पवस्व) आनन्दरस को परिस्रुत करो। उन विद्वानों के (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए तथा (वायवे) गतिशील मन के लिए (मदः) तृप्तिप्रदाता होवो ॥८॥

भावार्थ : परब्रह्म के पास से जो आनन्द-रस झरता है, वह साधक की ऊर्ध्वयात्रा में सहायक होता है, और उस रस से उसका मन, बुद्धि, प्राण आदि सब-कुछ परमतृप्ति को पा लेता है ॥८॥


In Sanskrit:

ऋषि : दृढच्युत आगस्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथानन्दरसस्य प्रस्रवणं प्रार्थ्यते।

पदपाठ : पवस्व। दक्षसाधनः ।दक्ष।साधनः। देवेभ्यः। पीतये। हरे। मरुद्भ्यः। वायवे। मदः ।८।

पदार्थ : हे (हरे) ऊर्ध्वहरणशील रसागार परब्रह्म ! (दक्षसाधनः) बलसाधकस्त्वम् (देवेभ्यः पीतये) विद्वद्भ्यः पानाय (पवस्व) आनन्दरसं परिस्रावय, किञ्च तेषां विदुषाम् (मरुद्भ्यः) प्राणेभ्यः (वायवे) गतिशीलाय मनसे च (मदः) तृप्तिकरो भव ॥ वाति गच्छतीति वायुः। मनसश्च गतिशीलत्वं ‘यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑। दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वसं॑कल्पमस्तु।’ य० ३४।१ इत्यादिवर्णनाद् सिद्धम् ॥८॥

भावार्थ : परब्रह्मणः सकाशाद् य आनन्दरसः प्रस्रवति स साधकस्योर्ध्वयात्रायां सहायको जायते। तेन च रसेन तस्य मनोबुद्धिप्राणादिकं सर्वमेव परमां तृप्तिं भजते ॥८॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२५।१, साम० ९१९।