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Samveda/540

इन्दुर्वाजी पवते गोन्योघा इन्द्रे सोमः सह इन्वन्मदाय। हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातिं वरिवस्कृण्वन्वृजनस्य राजा॥५४०

Veda : Samveda | Mantra No : 540

In English:

Seer : manyurvaasiShThaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : indurvaajii pavate gonyoghaa indre somaH saha invanmadaaya . hanti rakSho baadhate paryaraati.m varivaskRRiNvanvRRijanasya raajaa.540

Component Words :
induH. vaajii. pavate. gonyoghaaH.go.nyoghaaH. indre. somaH. sahaH. invan. madaaya. hanti. rakShaH. baadhate. pari. araatim.a.raatim. varivaH. kRRiNvan.vRRijanasya. raajaa. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मन्युर्वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के कर्मों का वर्णन है।

पदपाठ : इन्दुः। वाजी। पवते। गोन्योघाः।गो।न्योघाः। इन्द्रे। सोमः। सहः। इन्वन्। मदाय। हन्ति। रक्षः। बाधते। परि। अरातिम्।अ।रातिम्। वरिवः। कृण्वन्।वृजनस्य। राजा। ८ ।

पदार्थ : (गोन्योघाः) गो-रसों के समान मधुर आनन्दरसों के समूह का स्वामी, (वाजी) वेगवान् (इन्दुः) तेजस्वी और रस से आर्द्र करनेवाला परमात्मा (पवते) उपासक के अन्तःकरण को पवित्र करता है। (सोमः) शान्तिदायक वह परमात्मा (मदाय) आनन्द देने के लिए (इन्द्रे) जीवात्मा में (सहः) बल को (इन्वन्) प्रेरित करता है। (वृजनस्य) बल का (राजा) राजा वह परमात्मा, अपने उपासकों को (वरिवः) शुभगुणों का अथवा योग-सिद्धियों का ऐश्वर्य (कृण्वन्) प्रदान करता हुआ (रक्षः) पापरूप राक्षस को (हन्ति) विनष्ट करता है, (अरातिम्) अदानभाव को (परि बाधते) सर्वथा दूर कर देता है ॥८॥

भावार्थ : परमेश्वर उपासकों को गाय के दूध के समान मधुर आनन्दरसों को, आत्मबल को, सद्गुणों को एवं अणिमा आदि योगसिद्धियों को प्रदान करता हुआ उनके हृदय से अदानवृत्ति को बाधित करता हुआ और उनके पापरूप शत्रु का संहार करता हुआ उन्हें विजयी बनाता है ॥८॥


In Sanskrit:

ऋषि : मन्युर्वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथ सोमस्य परमात्मनः कर्माण्याह।

पदपाठ : इन्दुः। वाजी। पवते। गोन्योघाः।गो।न्योघाः। इन्द्रे। सोमः। सहः। इन्वन्। मदाय। हन्ति। रक्षः। बाधते। परि। अरातिम्।अ।रातिम्। वरिवः। कृण्वन्।वृजनस्य। राजा। ८ ।

पदार्थ : (गोन्योघाः२) गवां गोपयोवन्मधुराणाम् आनन्दरसानां न्योघाः समूहा यस्य सः। अत्र समासान्तः असच् प्रत्ययः। (वाजी) वेगवान् (इन्दुः) प्रदीप्तः, रसेन आर्द्रीकर्ता च परमात्मा (पवते) उपासकस्य अन्तःकरणं पवित्रीकरोति। (सोमः) शान्तिदायकः स परमेश्वरः (मदाय) आनन्दाय (इन्द्रे) जीवात्मनि (सहः) बलम् (इन्वन्) प्रेरयन्, भवतीति शेषः। इन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। किञ्च (वृजनस्य३) बलस्य। वृजनमिति बलनाम। निघ० २।९। (राजा) अधिपतिः स परमेश्वरः, स्वोपासकानाम् (वरिवः) गुणगणैश्वर्यं योगसिद्ध्यैश्वर्यं वा। वरिवः इति धननाम। निघं० २।१०। (कृण्वन्) प्रयच्छन् सन् (रक्षः) पापरूपं राक्षसम् (हन्ति) हिनस्ति, (अरातिम्) अदानभावं च (परि बाधते) सर्वथा निरस्यति ॥८॥

भावार्थ : परमेश्वर उपासकानां गोपयोवन्मधुरानानन्दरसान्, आत्मबलं, सद्गुणान्, अणिमादियोगसिद्धीश्च प्रयच्छन् तेषां हृदयाददानवृत्तिं बाधमानस्तेषां पापरूपं शत्रुं संहरंश्च तान् विजयिनः करोति ॥८॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।९७।१० ‘पर्यरातीर्वरिवः कृण्वन्’ इति पाठः।२. गोन्योघाः गवां न्योघाः सङ्घाः—इति वि०। गमनशीलः नीचीनोऽवाङ्मुखः ओघः प्रवाहः यस्य स गोन्योघाः—इति भ०। गमनशीलनीचीनाग्ररससङ्घातः—इति सा०। यत्तु ‘गोनीशब्दो गमनशीलार्थेऽपभ्रंश इत्युदाजहार च पस्पशे पतञ्जलिः’ इत्याह सत्यव्रतः सामश्रमी, तत्त्वत्र न समञ्जसम्, पदपाठे ‘गो न्योघाः’ इति पदच्छेदात्, पतञ्जलिना चापि अपभ्रंशशब्दस्यैवोल्लेखाद् न तु वैदिकशब्दस्येत्यवधेयम्।३. वृजनस्य बलस्य यज्ञस्य वा—इति भ०।