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Samveda/554

अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते। आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः॥५५४

Veda : Samveda | Mantra No : 554

In English:

Seer : kavirbhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : jagatii | Tone : niShaadaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : abhi priyaaNi pavate chanohito naamaani yahvo adhi yeShu vardhate . aa suuryasya bRRihato bRRihannadhi ratha.m viShva~nchamaruhadvichakShaNaH.554

Component Words :
abhi. priyaaNi. pavate. chanohitaH.chanaH.hitaH. naamaani. yahvaH. adhi. yeShu. vardhate. aa. suuryasya. bRRihataH. bRRihan. adhi. ratham. viShva~ncham. vi.sva~njam. aruhat. vichakShaNaH.vi.chakShaNaH..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा का वर्णन है।

पदपाठ : अभि। प्रियाणि। पवते। चनोहितः।चनः।हितः। नामानि। यह्वः। अधि। येषु। वर्धते। आ। सूर्यस्य। बृहतः। बृहन्। अधि। रथम्। विष्वञ्चम्। वि।स्वञ्जम्। अरुहत्। विचक्षणः।वि।चक्षणः।१।

पदार्थ : (चनोहितः) आस्वाद में हितकर, (यह्वः) महान् परमात्मारूप सोम (प्रियाणि) प्रिय, (नामानि) नमनशील हृदयों की (अभि) ओर (पवते)प्रवाहित होता है, (येषु अधि) जिन हृदयों में, यह (वर्द्धते) बढ़ता है। (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा, (बृहन्) बड़ी शक्तिवाला यही परमात्मा (बृहतः) विशाल (सूर्यस्य) सूर्य के (विष्वञ्चम्) विविध उत्कृष्ट गतिवाले (रथम् अधि) रथ के ऊपर (आ अरुहत्) आरूढ़ है, अर्थात् आदित्यमण्डल की कार्य-विधि का सञ्चालन भी वही कर रहा है, जैसा कि वेद में परमात्मा स्वयं कहता है—‘जो आदित्य में पुरुष है, वह मैं ही हूँ’ (य० ४०।२७) ॥१॥

भावार्थ : सूर्य-चन्द्र आदि सकल सृष्टि का सञ्चालक परमेश्वर ध्यान करने पर उपासकों के हृदय में प्रकट हो जाता है ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।

पदपाठ : अभि। प्रियाणि। पवते। चनोहितः।चनः।हितः। नामानि। यह्वः। अधि। येषु। वर्धते। आ। सूर्यस्य। बृहतः। बृहन्। अधि। रथम्। विष्वञ्चम्। वि।स्वञ्जम्। अरुहत्। विचक्षणः।वि।चक्षणः।१।

पदार्थ : (चनोहितः) चनसि आस्वादे हितः हितकरः। चनः इत्यन्नाम। निरु० ६।१६। (यह्वः) महान् परमात्मसोमः (प्रियाणि) स्निग्धानि (नामानि) नमनशीलानि हृदयानि (अभि) अभिलक्ष्य (पवते) प्रवाहितो भवति, (येषु अधि) येषु हृदयेषु अयम् (वर्द्धते) वृद्धिमाप्नोति। किञ्च (विचक्षणः) विशेषेण द्रष्टा (बृहन्) महाशक्तिः एष परमात्मा (बृहतः) विशालस्य (सूर्यस्य) आदित्यस्य (वि-स्वञ्चम्) विविधतया शोभनगतियुक्तम्। (रथम् अधि) रथस्योपरि (आ अरुहत्) आरूढवानस्ति। स एव सूर्यमण्डलस्य कार्यविधिं सञ्चालयतीत्यर्थः। “योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्” (य० ४०।१७) इति श्रुतेः ॥१॥

भावार्थ : सर्वस्याः सूर्यचन्द्रादिसृष्टेः सञ्चालकः परमेश्वरो ध्यातः सन्नुपासकानां हृदये प्रकटीभवति ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।७५।१, साम० ७००।