Samveda/561
इन्द्राय सोम सुषुतः परि स्रवापामीवा भवतु रक्षसा सह। मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः॥५६१
Veda : Samveda | Mantra No : 561
In English:
Seer : veno bhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : jagatii | Tone : niShaadaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : indraaya soma suShutaH pari sravaapaamiivaa bhavatu rakShasaa saha . maa te rasasya matsata dvayaavino draviNasvanta iha santvindavaH.561
Component Words : indraaya. soma. suShutaH.su.sutaH.pari. srava. apa. amiivaa . bhavatu. rakShasaa. saha. maa. te. rasasya .matsata. dvayaavinaH .draviNasvantaH. iha. santu.indavaH..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वेनो भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः
विषय : अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस के प्रवाह की प्रार्थना है।
पदपाठ : इन्द्राय। सोम। सुषुतः।सु।सुतः।परि। स्रव। अप। अमीवा । भवतु। रक्षसा। सह। मा। ते। रसस्य ।मत्सत। द्वयाविनः ।द्रविणस्वन्तः। इह। सन्तु।इन्दवः।८।
पदार्थ : हे (सोम) परब्रह्म परमात्मन् ! (सुषुतः) ध्यान द्वारा भली-भाँति निचोड़े हुए तुम (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिस्रव) परिस्रुत होवो, आनन्दरस को प्रवाहित करो। तुम्हारी सहायता से (रक्षसा सह) कामक्रोधादि रूप राक्षस के सहित (अमीवा) मन का सन्ताप रूप रोग (अप भवतु) हमसे दूर हो जाए। (द्वयाविनः) मन में कुछ तथा वाणी में कुछ, इस प्रकार दोहरे आचरणवाले कपटी, धूर्त, ठग लोग (ते) तुम्हारे (रसस्य) आनन्दरस का (मा मत्सत) स्वाद न ले सकें। (इह) हम सरल स्वभाववालों के अन्दर (इन्दवः) आर्द्र करनेवाले ब्रह्मानन्दरस (द्रविणस्वन्तः) समृद्ध और सबल (सन्तु) होवें ॥८॥इस मन्त्र में सकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥८॥
भावार्थ : सरलवृत्तिवाले मनुष्य ही ब्रह्मानन्दरस के अधिकारी होते हैं, कुटिल वृत्तिवाले और दूसरों को ठगनेवाले लोग नहीं ॥८॥
In Sanskrit:
ऋषि : वेनो भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः
विषय : अथ ब्रह्मानन्दरसप्रवाहं प्रार्थयते।
पदपाठ : इन्द्राय। सोम। सुषुतः।सु।सुतः।परि। स्रव। अप। अमीवा । भवतु। रक्षसा। सह। मा। ते। रसस्य ।मत्सत। द्वयाविनः ।द्रविणस्वन्तः। इह। सन्तु।इन्दवः।८।
पदार्थ : हे (सोम) परब्रह्म परमात्मन् ! (सुषुतः) ध्यानेन सम्यक् निष्पीडितः त्वम् (इन्द्राय) जीवात्मने (परिस्रव) परिस्रुतो भव, आनन्दरसं प्रवाहय। त्वत्साहाय्येन (रक्षसा सह) कामक्रोधाद्यात्मकेन राक्षसेन सार्द्धम् (अमीवा) मनस्तापरूपो रोगः (अप भवतु) अस्मत्तः पृथग् जायताम्। (द्वयाविनः२) मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् इति द्विविधाचरणाः कपटिनो धूर्ता वञ्चकाः। द्वयं येषां ते द्वयाविनः। द्वयशब्दात्, ‘छन्दोविन्प्रकरणेऽष्ट्रामेखलाद्वयोभयरुजाहृदयानां दीर्घश्चेति वक्तव्यम्। अ० ५।२।१२२, वा०’ इति वार्तिकेन मत्वर्थे विन् दीर्घश्च। (ते) तव (रसस्य) रसम् मधुरम् आनन्दम् (मा मत्सत) न स्वदितुं शक्नुयुः। मदी हर्षे। लुङ्। माङ्योगे अडागमाभावः। (इह) सरलस्वभावेषु अस्मासु पुनः (इन्दवः) क्लेदनकरा ब्रह्मानन्दरसाः (द्रविणस्वन्तः) ऐश्वर्यवन्तो बलवन्तो वा। द्रविणः धनं बलं वा तद्वन्तः। (सन्तु) भवन्तु, अस्मभ्यं स्वकीयम् ऐश्वर्यं बलं च प्रयच्छन्त्विति भावः ॥८॥अत्र सकारस्यासकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥८॥
भावार्थ : सरलवृत्तय एव जना ब्रह्मानन्दरसस्याधिकारिणो भवन्ति, न तु कुटिलवृत्तयः परप्रतारकाश्च ॥८॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।८५।१।२. द्वयाविनो द्वयवन्तः वञ्चकाः। येषां वाच्येकं कर्मणि अन्यत् ते द्वयाविनः—इति भ०। द्वयं सत्यानृतं तेन युक्ताः मायिन इत्यर्थः—इति सा०।