Samveda/642
आभिष्ट्वमभिष्टिभिः स्वाऽ३र्न्ना शुः।प्रचेतन प्रचेतयेन्द्र द्युम्नाय न इषे॥६४२
Veda : Samveda | Mantra No : 642
In English:
Seer : prajaapatiH | Devta : indraH | Metre : viraaT | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : aabhiShTvamabhiShTibhiH svaa.a3rnnaa.m shuH . prachetana prachetayendra dyumnaaya na iShe.642
Component Words : aabhiH. tvam. abhiShTibhiH. svaH. na.a.NshuH. prachetana.pra.chetana.indra. dyumnaaya. naH. iShe. .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः
विषय : परमात्मा की स्तुति से हम क्या-क्या प्राप्त करें, यह कहते हैं।
पदपाठ : आभिः। त्वम्। अभिष्टिभिः। स्वः। न।अँशुः। प्रचेतन।प्र।चेतन।इन्द्र। द्युम्नाय। नः। इषे। २।
पदार्थ : हे परमात्मन् ! आप (आभिः) इन हमसे माँगी गयी (अभिष्टिभिः) अभीष्ट सिद्धियों से, हमें कृतार्थ कीजिए। आप (स्वः न) सूर्य के समान (अंशुः) अंशुमाली हैं। हे (प्रचेतन) प्रकृष्ट चेतनावाले जागरूक परमेश्वर ! आप हमें (प्रचेतय) प्रकृष्ट चेतनावाला जागरूक बनाइए। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् ! आप (नः) हमें (द्युम्नाय) धन, यश और तेज के लिए, तथा (इषे) अन्न, रस और विज्ञान के लिए, पुरुषार्थी कीजिए ॥२॥इस मन्त्र में ‘प्रचेत’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है ॥२॥
भावार्थ : परमात्मा की संगति से हम अध्यात्म-ज्योति से प्रकाशमान, जागरूक, धनवान्, अन्नवान्, तेजस्वी, यशस्वी और विज्ञानवान् होवें ॥२॥
टिप्पणी :अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
In Sanskrit:
ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः
विषय : अथ परमात्मस्तुत्या वयं किं किं प्राप्नुयामेत्याह।
पदपाठ : आभिः। त्वम्। अभिष्टिभिः। स्वः। न।अँशुः। प्रचेतन।प्र।चेतन।इन्द्र। द्युम्नाय। नः। इषे। २।
पदार्थ : हे परमात्मन् ! त्वम् (आभिः) एताभिः अस्मत्प्रार्थिताभिः (अभिष्टिभिः) अभीष्टसिद्धिभिः अस्मान् कृतार्थय इति शेषः। त्वम् (स्वः न) आदित्यः इव (अंशुः) अंशुमान् असि। हे (प्रचेतन) प्रकृष्टचैतन्य जागरूक परमेश्वर ! त्वम् अस्मान् (प्रचेतय) प्रकृष्टचेतनान् जागरूकान् कुरु। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् ! त्वम् (नः) अस्मान् (द्युम्नाय) धनाय, यशसे, तेजसे च, (इषे) अन्नाय, रसाय, विज्ञानाय च, पुरुषार्थिनः कुरु ॥(अभिष्टिभिः) अभिपूर्वात् इष गतौ धातोः ‘मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः, अ० ३।३।८६’ इति क्तिनि, ‘एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्, अ० ६।१।९४ वा०’ इत्यनेन पररूपम्। (अंशुः) अंशुशब्दस्य अंशुमति लक्षणा, यद्वा मतुबर्थकस्य लुक् ॥२॥अत्र ‘प्रचेत’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः ॥२॥
भावार्थ : परमात्मसंगत्या वयमध्यात्मज्योतिषा प्रकाशमाना जागरूका धनान्नवन्तस्तेजस्विनो यशस्विनो विज्ञानिनश्च भूयास्म ॥२॥
टिप्पणी:अथ परमात्मानं प्रार्थयते।