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Samveda/730

न हि त्वा शूर देवा न मर्तोसो दित्सन्तम्। भीमं न गां वारयन्ते(के)।।॥७३०

Veda : Samveda | Mantra No : 730

In English:

Seer : kusiidii kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : na hi tvaa shuura devaa na martaaso ditsantam . bhiima.m na gaa.m vaarayante.730

Component Words :
na . hi . tvaa . shuura . devaaH . na . martaasaH . ditsantam . bhiimam . na . gaam . baarayante .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कुसीदी काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में परमेश्वर के दान का वर्णन है।

पदपाठ : न । हि । त्वा । शूर । देवाः । न । मर्तासः । दित्सन्तम् । भीमम् । न । गाम् । बारयन्ते ॥

पदार्थ : हे (शूर) दानशूर परमात्मन् ! (दित्सन्तम्) जब आप किसी को भौतिक या दिव्य ऐश्वर्य देना चाहते हो, तब (त्वा) आपको (नहि) न तो (देवाः) चमकीले अग्नि, सूर्य, चन्द्र, विद्युत् आदि कोई जड़ पदार्थ और (न) न ही (मर्तासः) मनुष्य (वारयन्ते) रोक सकते हैं, (भीमं गां न) जैसे भंयकर दुर्दान्त विद्युत् रूप अग्नि को कोई नहीं रोक सकता ॥३॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : जो कृपालु परमेश्वर सूर्यकिरण, पत्र, पुष्प, फल, वायु जल आदि वस्तुओं को और सत्य, न्याय, दया, उदारता आदि को बिना मूल्य के ही प्रदान करता है, उसकी सबको कृतज्ञता के साथ वन्दना करनी चाहिए ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : कुसीदी काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ परमेश्वरस्य दानं वर्णयति।

पदपाठ : न । हि । त्वा । शूर । देवाः । न । मर्तासः । दित्सन्तम् । भीमम् । न । गाम् । बारयन्ते ॥

पदार्थ : हे (शूर) दानशौण्ड परमात्मन् ! (दित्सन्तम्) भौतिकं दिव्यं चैश्वर्यं दातुमिच्छन्तम् (त्वा) त्वाम् (नहि) नैव (देवाः) दीप्यमानाः अग्निसूर्यचन्द्रविद्युदादयः, (न) नापि च (मर्तासः) मनुष्याः (वारयन्ते) निरोद्धुं शक्नुवन्ति। कथमिव ? (भीमं गां न) भयंकरं विद्युदग्निमिव। यथा दुर्दान्तं विद्युदग्निं केचिद् वारयितुं नोत्सहन्ते तद्वदित्यर्थः ॥३॥अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थ : यः कृपालुः परमेश्वरः सूर्यरश्मिपत्रपुष्पफलवायुवारिप्रभृतीनि वस्तूनि सत्यन्यायदयादाक्षिण्यादीनि च निःशुल्कमेव प्रयच्छति स सर्वैः कृतज्ञतया वन्दनीया ॥३॥

टिप्पणी:३. ऋ० ८।८१।३।