Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/790

अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्। अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्॥७९०

Veda : Samveda | Mantra No : 790

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : agni.m duuta.m vRRiNiimahe hotaara.m vishvavedasam . asya yaj~nasya sukratum.790

Component Words :
agnim .duutam .vRRiNiimahe .hotaaram .vishvavedasam .vishva .vedasam .asya .yaj~nasya .sukratum .su. kratuma.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३ पर परमात्मा के पक्ष में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य, राजा और भौतिक अग्नि के पक्ष में व्याख्या करते हैं।

पदपाठ : अग्निम् ।दूतम् ।वृणीमहे ।होतारम् ।विश्ववेदसम् ।विश्व ।वेदसम् ।अस्य ।यज्ञस्य ।सुक्रतुम् ।सु। क्रतुम॥

पदार्थ : प्रथम—आचार्य के पक्ष में। हम (होतारम्) विद्या और आचार के दाता, (विश्ववेदसम्) सम्पूर्ण वाङ्मय के ज्ञाता, (अस्य) इस किये जाते हुए (यज्ञस्य) विद्या-यज्ञ के (सुक्रतुम्) सुकर्ता, (दूतम्) दुर्गुण, दुर्व्यसन, प्रमाद, आलस्य, दुःख आदि को संतप्त करनेवाले (अग्निम्) तेजस्वी, कर्मनिष्ठ, अग्रनेता आचार्य को (वृणीमहे) गुरुरूप से वरते हैं ॥द्वितीय—राजा के पक्ष में। हम (होतारम्) सुराज्य-व्यवस्था से प्रजाओं को सुख देनेवाले, (विश्ववेदसम्) सम्पूर्ण राजनीतिविज्ञान के ज्ञाता, (अस्य) इस किये जाते हुए (यज्ञस्य) राष्ट्र-यज्ञ के (सुक्रतुम्) सुकर्ता, दूतम् शत्रुओं तथा भ्रष्टाचारियों के संतापक, (अग्निम्) अग्रनेता, कर्मठ, सुयोग्य जन को (वृणीमहे) प्रजा के बीच से राजारूप में चुनते हैं ॥तृतीय—भौतिक अग्नि के पक्ष में। हम शिल्पविद्या के ज्ञाता विद्वान् लोग (होतारम्) यानों और यन्त्रों में वेगादि गुण को देनेवाले, (विश्ववेदसम्) सब सुख के साधन जिससे प्राप्त होते हैं ऐसे, (अस्य) इस किये जाते हुए (यज्ञस्य) शिल्पयज्ञ के (सुक्रतुम्) सुसम्पादन में साधनभूत, दूतम् यन्त्रकलाओं को गति देनेवाले (अग्निम्) विद्युत् को (वृणीमहे) शिल्पक्रियाओं में प्रयुक्त करते हैं ॥१॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि जगदीश्वर की उपासना से शुभ प्रेरणा पाकर, सुयोग्य, उत्तम शिक्षा देनेवाले आचार्य को वरकर, सब विद्याएँ पढ़कर, सदाचार को स्वीकार करके, विद्युद्-विद्या से शिल्पविद्या की उन्नति द्वारा भू-यान, जल-यान और अन्तरिक्ष-यानों को तथा तरह-तरह के यन्त्रों को बना कर राष्ट्र की उन्नति करें ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्यातपूर्वा। अत्राचार्यनृपतिभौतिकाग्नीनां विषये व्याख्यायते।

पदपाठ : अग्निम् ।दूतम् ।वृणीमहे ।होतारम् ।विश्ववेदसम् ।विश्व ।वेदसम् ।अस्य ।यज्ञस्य ।सुक्रतुम् ।सु। क्रतुम॥

पदार्थ : प्रथमः—आचार्यपक्षे। वयम् (होतारम्) विद्यायाः आचारस्य च दातारम्, (विश्ववेदसम्) सर्वस्य वाङ्मयस्य वेत्तारम्, (अस्य) अनुष्ठीयमानस्य एतस्य (यज्ञस्य) विद्यायज्ञस्य (सुक्रतुम्) सुकर्तारम्, (दूतम्) शिष्यजनस्य दोषादीनाम् उपतापकम्। [टुदु उपतापे, दुनोति उपतपति दुर्गुणदुर्व्यसनप्रमादालस्यदुःखादीनि यः तम्।] (अग्निम्) तेजस्विनं कर्मनिष्ठम् अग्रनेतारम् आचार्यम् (वृणीमहे) गुरुत्वेन स्वीकुर्महे ॥द्वितीयः—नृपतिपक्षे। वयम् (होतारम्) सुराज्यव्यवस्थया प्रजाभ्यः सुखदातारं राजदेयकरस्य च आदातारम्। [हु दानादनयोः, आदाने चेत्येके।] (विश्ववेदसम्) विश्वस्य सकलस्य राजनीतिविज्ञानस्य वेत्तारम्, (अस्य) अनुष्ठीयमानस्य एतस्य (यज्ञस्य) राष्ट्रयज्ञस्य (सुक्रतुम्) सुकर्तारम् (दूतम्) शत्रूणां भ्रष्टाचारिणां च सन्तापकम् (अग्निम्) अग्रणीं कर्मठं सुयोग्यं जनम् (वृणीमहे) प्रजामध्याद् नृपतित्वेन स्वीकुर्महे ॥तृतीयः—भौतिकाग्निपक्षे। वयं शिल्पविद्यावेत्तारो विद्वांसः (होतारम्) यानेषु यन्त्रेषु च वेगादिगुणदातारम्, (विश्ववेदसम्) विश्वानि सुखसाधनानि विद्यन्ते प्राप्यन्ते यस्मात् तम्, (अस्य) अनुष्ठीयमानस्य एतस्य (यज्ञस्य) शिल्पयज्ञस्य (सुक्रतुम्) सुसम्पादनसाधनभूतम्, (दूतम्) यो दावयति गमयति यन्त्रकलाः तम् (अग्निम्) विद्युतम् (वृणीमहे) शिल्पक्रियासु प्रयुञ्ज्महे ॥१॥१अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

भावार्थ : मनुष्यैर्जगदीश्वरोपासनया सत्प्रेरणां प्राप्य सुयोग्यं सुशिक्षकमाचार्यं वृत्वा सर्वा विद्या अधीत्य सदाचारमङ्गीकृत्य विद्युद्विद्यया शिल्पविद्योन्नत्या भूजलान्तरिक्षयानानि विविधानि यन्त्राणि च निर्माय राष्ट्रोन्नतिः संसाधनीया ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।१२।१, साम० ३, अथ० २०।१०१।१।१. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं भौतिकाग्निप्रयोगेण शिल्पविद्योन्नतिविषये व्याख्यातवान्।