Samveda/808
एवा पवस्व मदिरो मदायोदग्राभस्य नमयन्वधस्नुम्। परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः (रि)।।॥८०८
Veda : Samveda | Mantra No : 808
In English:
Seer : upamanyurvaasiShThaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : evaa pavasva madiro madaayodagraabhasya namayanvadhasnum . pari varNa.m bharamaaNo rushanta.m gavyurno arSha pari soma siktaH.808
Component Words : eva .pavasva. madiraH .madaaya .udagraabhasya .uda .graabhasya .namayan .vadhastum .vadha. stuma .pari .varNam .bharamaaNaH .rushantam .gavyuH .naH .ardha .pari .soma .siktaH.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : उपमन्युर्वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः
विषय : अगले मन्त्र में पुनः वही विषय वर्णित है।
पदपाठ : एव ।पवस्व। मदिरः ।मदाय ।उदग्राभस्य ।उद ।ग्राभस्य ।नमयन् ।वधस्तुम् ।वध। स्तुम ।परि ।वर्णम् ।भरमाणः ।रुशन्तम् ।गव्युः ।नः ।अर्ध ।परि ।सोम ।सिक्तः॥
पदार्थ : हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (उदग्राभस्य) जल में निवास करनेवाले ग्राह के समान हिंसक कामादि शत्रु के (वधस्नुम्) वज्रशिखर को अर्थात् उसके हिंसकव्यापार को, (नमयन्) नीचे करते हुए, दूर करते हुए (मदिरः) आनन्दजनक आप (मदाय) आनन्द के लिए (एव) यथोचित रूप से (पवस्व) प्रस्रुत होवो, बहो और (सिक्तः) हृदय में सिंचे हुए आप (रुशन्तं वर्णम्) तेजस्वी रूप को (परि भरमाणः) धारण करते हुए (गव्युः) दिव्य प्रकाश की किरणें प्रदान करना चाहते हुए (नः) हमें (परि अर्ष) चारों ओर से प्राप्त होवो ॥३॥
भावार्थ : परमात्मा की उपासना से दुर्विचार नष्ट होते हैं, सद्विचार तथा सद्गुण उत्पन्न होते हैं, दिव्य ज्योति चमकने लगती है और आनन्दरस की धाराएँ उपासक को आप्लुत कर देती हैं ॥३॥इस खण्ड में ब्रह्मविद्या में आचार्य का योगदान कहकर परमात्मा के पास से जीवात्मा में ब्रह्मानन्द का प्रवाह वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥तृतीय अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
In Sanskrit:
ऋषि : उपमन्युर्वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः
विषय : अथ पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।
पदपाठ : एव ।पवस्व। मदिरः ।मदाय ।उदग्राभस्य ।उद ।ग्राभस्य ।नमयन् ।वधस्तुम् ।वध। स्तुम ।परि ।वर्णम् ।भरमाणः ।रुशन्तम् ।गव्युः ।नः ।अर्ध ।परि ।सोम ।सिक्तः॥
पदार्थ : हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (उदग्राभस्य) उदके निवसतो ग्राहस्य इव हिंसकस्य कामादिशत्रोः (वधस्नुम्) वज्रसानुम्, हिंसाव्यापारमित्यर्थः। [वध इति वज्रनाम। निघं० २।२०। स्नुशब्दः सानुपर्यायः।] (नमयन्) अधः कुर्वन् (मदिरः) आनन्दजनकः त्वम् (मदाय) आनन्दाय (एव) यथायथम् (पवस्व) प्रस्रव। किञ्च, (सिक्तः) हृदये क्षारितः त्वम् (रुशन्तं वर्णम्) तेजस्विरूपम् (परि भरमाणः) परिधारयन् (गव्युः) गाः दिव्यप्रकाशरश्मीन् अस्मभ्यं प्रदातुकामः (नः) अस्मान् (परि अर्ष) परिप्राप्नुहि ॥३॥
भावार्थ : परमात्मोपासनेन दुर्विचारा नश्यन्ति, सद्विचाराः सद्गुणाश्चोत्पद्यन्ते, दिव्यं ज्योतिर्दीप्यते, आनन्दरसधाराश्चोपासकमाप्लावयन्ति ॥३॥अस्मिन् खण्डे ब्रह्मविद्यायामाचार्यस्य योगदानमुक्त्वा परमात्मनः सकाशाज्जीवात्मनि ब्रह्मानन्दप्रवाहस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।९७।१५, ‘वध॒स्नैः’ इति भेदः।