Samveda/884
यस्त इन्द्र नवीयसीं गिरं मन्द्रामजीजनत्। चिकित्विन्मनसं धियं प्रत्नामृतस्य पिप्युषीम्॥८८४
Veda : Samveda | Mantra No : 884
In English:
Seer : tirashchiiraa~Ngirasau | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : yasta indra naviiyasii.m gira.m mandraamajiijanat . chikitvinmanasa.m dhiya.m pratnaamRRitasya pipyuShiim. 884
Component Words : yaH. te. indra .naviiyasiim .giram. mandraam .ajiijanam .chikitvinmanasam .chikitvisam .manasam .dhiyam .pratnaam .RRitasya .pipyuShiim.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : तिरश्चीराङ्गिरसौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा, आचार्य और राजा को सम्बोधन है।
पदपाठ : यः। ते। इन्द्र ।नवीयसीम् ।गिरम्। मन्द्राम् ।अजीजनम् ।चिकित्विन्मनसम् ।चिकित्विसम् ।मनसम् ।धियम् ।प्रत्नाम् ।ऋतस्य ।पिप्युषीम्॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमात्मन्, आचार्य वा राजन् ! (यः) जिस उपासक, शिष्य वा प्रजाजन ने (ते) आपके लिए (नवीयसीम्) अतिशय नवीन, (मन्द्राम्) आनन्दजनक (गिरम्) प्रार्थना की वाणी (अजीजनत्) उच्चारण की है और (चिकित्विन्मनसम्) मन को जागरूक करनेवाली, (प्रत्नाम्) श्रेष्ठ, (ऋतस्य पिप्युषीम्) सत्य को बढ़ानेवाली (धियम्) ध्यान-धारा वा बुद्धि को (अजीजनत्) तेरे प्रति प्रेरित किया है, उसके लिए (रायः) श्रेष्ठ गुण, श्रेष्ठ धन, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ आचरण आदि ऐश्वर्य की (पूर्धि) पूर्ति कीजिए। [यहाँ ‘रायः पूर्धि’ यह वाक्य-पूर्ति के लिए पूर्व मन्त्र से यहां लाया गया है] ॥२॥
भावार्थ : जो निश्छल मन, समर्पण-भावना और हृदयस्पर्शी शब्दों से परमात्मा, आचार्य वा राजा से याचना करता है, उसकी उत्तम गुण, उत्तम धर्म, उत्तम धन, उत्तम विद्या आदि की वृद्धि वे सदा करते हैं ॥२॥
In Sanskrit:
ऋषि : तिरश्चीराङ्गिरसौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अथ परमात्माचार्यनृपतयः सम्बोध्यन्ते।
पदपाठ : यः। ते। इन्द्र ।नवीयसीम् ।गिरम्। मन्द्राम् ।अजीजनम् ।चिकित्विन्मनसम् ।चिकित्विसम् ।मनसम् ।धियम् ।प्रत्नाम् ।ऋतस्य ।पिप्युषीम्॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमात्मन्, आचार्य राजन् वा ! (यः) उपासकः, शिष्यः, प्रजाजनो वा (ते) तुभ्यम् (नवीयसीम्२) अतिशयेन नूतनाम्, (मन्द्राम्) आनन्दकरीम् (गिरम्) प्रार्थनावाचम् (अजीजनत्) उत्पादितवानस्ति, किञ्च (चिकित्विन्मनसम्३) चिकित्वित् जागरूकं मनः यया तादृशीम् (प्रत्नाम्४) श्रेष्ठाम्, (ऋतस्य पिप्युषीम्५) सत्यस्य वर्धयित्रीम्। [ओप्यायी वृद्धौ, लिटः क्वसुः, स्त्रियां ङीप्।] (धियम्) ध्यानधारां बुद्धिं वा (अजीजनत्) त्वां प्रति प्रेरितवान् अस्ति, तदर्थम् (रायः) सद्गुणसद्धनसद्विद्यासद्वृत्तादिकस्य ऐश्वर्यस्य (पूर्धि) पूर्तिं कुरु। [अत्र ‘रायः पूर्धि’ इति वाक्यपूर्त्यर्थं पूर्वमन्त्रादाकृष्यते] ॥२॥
भावार्थ : यो निश्छलेन मनसा समर्पणभावनया हृदयस्पर्शिशब्दैश्च परमात्मानमाचार्यं राजानं वा याचते तस्य सद्गुणसद्धर्म- सद्धनसद्विद्यादिवृद्धिं ते सदा कुर्वन्ति ॥२॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।९५।५ ‘इन्द्र॒ यस्ते॒ नवी॑यसी॒’ इति पाठः।२. नवीयसीं मृदुपदवर्णस्वरोदाहरणयुक्ताम्—इति वि०।३. कित ज्ञाने, क्वसौ रूपम्, अकारस्येकारश्छान्दसः। चिकित्वांसि ज्ञातानि सर्वेषां हृदयानि यया—इति सा०।४. प्रत्नाम् ऋग्यजुःसामलक्षणाम्—इति वि०।५. ऋतो यज्ञः अथवा ऋतो मन्त्रः अथवा ऋतः प्रजापतिः अथवा ऋतं सत्यं परं ब्रह्म तस्य पिप्युषीं पोषणसमर्थाम्—इति वि०।