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Samveda/919

पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्यः पीतये हरे। मरुद्भ्यो वायवे मदः॥९१९

Veda : Samveda | Mantra No : 919

In English:

Seer : haDhachyuta aagastyaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pavasva dakShasaadhano devebhyaH piitaye hare . marudbhyo vaayave madaH.919

Component Words :
pavasva .dakShasaadhanaH. dakSha. saadhanaH. devebhyaH .piitaye.hare .marudbhayaH .vaayave .madaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : हढच्युत आगस्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४७४ पर ब्रह्म के पास से आनन्दरस-प्रवाह के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित करते हैं।

पदपाठ : पवस्व ।दक्षसाधनः। दक्ष। साधनः। देवेभ्यः ।पीतये।हरे ।मरुद्भयः ।वायवे ।मदः॥

पदार्थ : हे (हरे) दोषों को हरनेवाले आचार्य ! (दक्षसाधनः) विद्या, सच्चरित्रता, ब्रह्मचर्य आदि बलों को सिद्ध करनेवाले आप (देवेभ्यः पीतये) दिव्यगुणी शिष्यों के पान के लिए (पवस्व) ज्ञानरस प्रवाहित करो और (मरुद्भ्यः) उन प्राणायाम के साधक शिष्यों की (वायवे) प्रगति के लिए (मदः) उत्साहकारी होवो ॥१॥

भावार्थ : आचार्य को चाहिए कि शिष्यों के लिए जो-जो आवश्यक हो, वह-वह सब करे, जिससे वे विद्या में पारङ्गत, सच्चरित्र, ब्रह्मचारी, प्रगतिशील और कर्मयोगी होवें ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : हढच्युत आगस्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७४ क्रमाङ्के ब्रह्मणः सकाशादानन्दरसप्रवहणविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : पवस्व ।दक्षसाधनः। दक्ष। साधनः। देवेभ्यः ।पीतये।हरे ।मरुद्भयः ।वायवे ।मदः॥

पदार्थ : हे (हरे) दोषहर्तः आचार्य ! (दक्षसाधनः)सच्चारित्र्यविद्याब्रह्मचर्यादिबलानां साधयिता त्वम् (देवेभ्यः पीतये) दिव्यगुणयुक्तानां शिष्याणां पानाय(पवस्व) ज्ञानरसं प्रवाहय। किञ्च (मरुद्भ्यः) तेषां प्राणायामसाधकानां शिष्याणां (वायवे) प्रगतये (मदः)उत्साहकरः भवेति शेषः। [देवेभ्यः मरुद्भ्यः इत्युभयत्र ‘षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वाच्यम्’ वा० २।३।६२ इति वार्तिकेन षष्ठ्यर्थे चतुर्थी] ॥१॥

भावार्थ : आचार्येण शिष्याणां कृते यद्यदावश्यकं तत्तत् सर्वं कर्तव्यं येन ते विद्यापारंगताः सच्चरित्रा ब्रह्मचारिणः प्रगतिशीलाः कर्मयोगिनश्च भवेयुः ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२५।१, साम० ४७४।