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Samveda/1001

युव हि स्थः स्वःपती इन्द्रश्च सोम गोपती। ईशाना पिप्यतं धियः (पु)।।॥१००१

Veda : Samveda | Mantra No : 1001

In English:

Seer : asitaH kaashyapo devalo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yuva.m hi sthaH svaHpatii indrashcha soma gopatii . iishaanaa pipyata.m dhiyaH.1001

Component Words :
yuvam. hi. sthaH .svapatii .sva.ariti .patiiiti .indraH .cha .soma .gopatii .go .patiiiti. iishaanaa .pipyatam .dhiyaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में सोम नाम से परमेश्वर तथा इन्द्र नाम से आचार्य को कहा जा रहा है।

पदपाठ : युवम्। हि। स्थः ।स्वपती ।स्वऽ३रिति ।पतीइति ।इन्द्रः ।च ।सोम ।गोपती ।गो ।पतीइति। ईशाना ।पिप्यतम् ।धियः॥

पदार्थ : हे (सोम) जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! आप (इन्द्रः च) और अज्ञान को दूर करनेवाले आचार्य (युवं हि) तुम दोनों ही (स्वःपती) ज्ञानप्रकाश के स्वामी और (गोपती) वाणी के अधिपति (स्थः) हो। (ईशाना) ज्ञान और वाणी के स्वामी आप दोनों हमारी (धियः) श्रेष्ठ प्रज्ञाओं और श्रेष्ठ क्रियाओं को (पिप्यतम्) बढ़ाओ ॥३॥

भावार्थ : परमात्मा की उपासना से और गुरु के सत्कार से श्रेष्ठ सत्यज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं ॥३॥इस खण्ड में परमात्मा, ब्रह्मानन्द-रस, आचार्य एवं प्रसङ्गतः गौओं तथा गोदुग्ध का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥षष्ठ अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ सोमनाम्ना परमेश्वर इन्द्रनाम्ना चाचार्य उच्यते।

पदपाठ : युवम्। हि। स्थः ।स्वपती ।स्वऽ३रिति ।पतीइति ।इन्द्रः ।च ।सोम ।गोपती ।गो ।पतीइति। ईशाना ।पिप्यतम् ।धियः॥

पदार्थ : हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (इन्द्रः च) अज्ञानविदारकः आचार्यश्च (युवम् हि) युवाम् खलु उभावपि (स्वःपती) ज्ञानप्रकाशस्य स्वामिनौ, (गोपती) वाक्पती च (स्थः) विद्येथे। (ईशाना) ईशानौ ज्ञानस्य वाचश्च स्वामिनौ युवाम् अस्माकम् (धियः) सत्प्रज्ञाः सत्कर्माणि च (पिप्यतम्) वर्धयतम्। [ओप्यायी वृद्धौ, प्यायः पी] ॥३॥

भावार्थ : परमात्मन उपासनेन गुरोश्च सत्कारेण श्रेष्ठं सत्यं ज्ञानं प्राप्य तदनुकूलानि कर्माणि च कृत्वा मनुष्याः स्वजीवनमुन्नेतुं पारयन्ति ॥३॥अस्मिन् खण्डे परमात्मनो ब्रह्मानन्दरसस्याऽऽचार्यस्य प्रसङ्गतश्च गवां गोदुग्धक्षारणस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।१९।२, ‘स्वर्पती॒’ इति पाठः।