Samveda/1028
असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि। आ त्वा पृणक्त्विन्द्रिय रजः सूर्यो न रश्मिभिः॥१०२८
Veda : Samveda | Mantra No : 1028
In English:
Seer : gotamo raahuugaNaH | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : asaavi soma indra te shaviShTha dhRRiShNavaa gahi . aa tvaa pRRiNaktvindriya.m rajaH suuryaa na rashmibhiH.1028
Component Words : asaavi .somaH .indra. te .shaviShTha .dhRRiShNo .aa .gahi .aa .tvaa .pRRiNaktu .indriyam .rajaH .suuryaH .na .rashmibhiH.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३४७ पर जीवात्मा और सेनाध्यक्ष के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ परमात्मा जीवात्मा को कह रहा है।
पदपाठ : असावि ।सोमः ।इन्द्र। ते ।शविष्ठ ।धृष्णो ।आ ।गहि ।आ ।त्वा ।पृणक्तु ।इन्द्रियम् ।रजः ।सूर्यः ।न ।रश्मिभिः॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) सखा जीवात्मा ! मैंने (ते) तेरे लिए (सोमः) आनन्दरस (असावि) उत्पन्न किया है। (हे शविष्ठ) बलिष्ठ ! हे (धृष्णो) कामादि शत्रुओं के पराजेता ! (आगहि) आ। (इन्द्रियम्) आत्मबल (त्वा) तुझे (आ पृणक्तु) परिपूर्ण करे, (सूर्यः न) जैसे सूर्य (रश्मिभिः) किरणों से (रजः) पृथिवी, चन्द्रमा आदि लोकों को परिपूर्ण करता है ॥१॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ : परमात्मा के साथ मैत्री करके जीवात्मा अविच्छिन्न आनन्द–रस की धारा को और अनन्त आत्मबल को पा लेता है ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३४७ क्रमाङ्के जीवात्मसेनाध्यक्षयोर्विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मा जीवात्मानं ब्रूते।
पदपाठ : असावि ।सोमः ।इन्द्र। ते ।शविष्ठ ।धृष्णो ।आ ।गहि ।आ ।त्वा ।पृणक्तु ।इन्द्रियम् ।रजः ।सूर्यः ।न ।रश्मिभिः॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) सखे जीवात्मन् ! मया (ते) तुभ्यम् (सोमः) आनन्दरसः (असावि) अभिषुतोऽस्ति। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! हे (धृष्णो) कामादिशत्रूणां धर्षणशील ! (आगहि) आगच्छ। (इन्द्रियम्) आत्मबलम् (त्वा) त्वाम् (आ पृणक्तु) आपूरयतु, (सूर्यः न) आदित्यो यथा (रश्मिभिः) किरणैः (रजः) पृथिवीचन्द्रादिकं लोकम् आपृणक्ति आपूरयति ॥१॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थ : परमात्मना सख्यं कृत्वा जीवात्माऽविच्छिन्नामानन्दरसधारामनन्त- मात्मबलं च लभते ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० १।८४।१, साम० ३४७।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिमन्त्रमेतं सेनाध्यक्षपक्षे व्याचष्टे।