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Samveda/1038

आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्नवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥१०३८

Veda : Samveda | Mantra No : 1038

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa vachyasva mahi psaro vRRiShendo dyumnavattamaH . aa yoni.m dharNasiH sadaH.1038

Component Words :
aa. vachyasva .mahi .psaraH .vRRiShaa.indo .gunnavattamaH .aa .yonim .dharNasiH .sadaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : आगे पुनः वही विषय कहा गया है।

पदपाठ : आ। वच्यस्व ।महि ।प्सरः ।वृषा।इन्दो ।गुन्नवत्तमः ।आ ।योनिम् ।धर्णसिः ।सदः॥

पदार्थ : हे परमात्मन् ! आप हमारे द्वारा (आ वच्यस्व) स्तुति किये जाओ। आप हमारे लिए (महि प्सरः) सत्य, न्याय, शूरता, दया, उदारता आदि के महान् रूप को प्रदान करो। हे (इन्दो) रसागार, रस से आर्द्र करनेवाले भगवन् ! आप (वृषा) आनन्दवर्षी और (द्युम्नवत्तमः) सबसे अधिक तेजस्वी हो। (धर्णसिः) जगत् के धारणकर्ता आप (योनिम्) हमारे आत्म-गृह में (आ सदः) आकर बैठो ॥२॥यहाँ जगत् का धारक विराट् परमेश्वर छोटे से जीवात्मरूप घर में कैसे समा सकता है, अतः विरूपसंघटनारूप विषमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ : आराधना किया गया परमेश्वर उपासक के अन्तरात्मा में आनन्द बरसा-बरसा कर उसका महान् उपकार करता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदपाठ : आ। वच्यस्व ।महि ।प्सरः ।वृषा।इन्दो ।गुन्नवत्तमः ।आ ।योनिम् ।धर्णसिः ।सदः॥

पदार्थ : हे परमात्मन् ! त्वम् अस्माभिः (आ वच्यस्व) आ स्तूयस्व। [वच परिभाषणे, कर्मणि लोण्मध्यमैकवचने उच्यस्व इति प्राप्ते सम्प्रसारणाभावश्छान्दसः।] त्वम् अस्मभ्यम् (महि प्सरः) सत्यन्यायशौर्यदयादाक्षिण्यादिकं महद् रूपम्, प्रयच्छेति शेषः। हे (इन्दो) रसागार, रसेन क्लेदक भगवन् ! त्वम् (वृषा) आनन्दवर्षकः, (द्युम्नवत्तमः) तेजस्वितमश्च, असि। (धर्णसिः) जगद्धारकः त्वम्। [धृञ् धारणे धातोः ‘सानसिवर्णसिपर्णसि०। उ० ४।१०८’ इति बाहुलकाद् असि प्रत्ययो नुगागमश्च।] (योनिम्) अस्माकम् आत्मसदनम्। [योनिः गृहनाम। निघं० ३।४।] (आसदः) आसीद ॥२॥अत्र जगद्धारको विराट् परमेश्वरः स्वल्पे जीवात्मगृहे कथं समेयादिति विरूपसंघटनारूपो विषमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थ : आराधितः परमेश्वर उपासकस्यान्तरात्मन्यानन्दं वर्षं वर्षं तं महदुपकरोति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२।२।