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Samveda/1072

यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्। वसु स्पार्हं तदा भर (चू)।।॥१०७२

Veda : Samveda | Mantra No : 1072

In English:

Seer : trishokaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yadviiDaavindra yatsthire yatparshaane paraabhRRitam . vasu spaarha.m tadaa bhara.1072

Component Words :
yat. viiDii .indra. yat. sthire .yat .parshaane .paraabhRRitam. paraa. bhRRitam .vasu .spaarham .tat .aa .bhara.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में २०७ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य को सम्बोधित की जा चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा को सम्बोधित कर रहे हैं।

पदपाठ : यत्। वीडी ।इन्द्र। यत्। स्थिरे ।यत् ।पर्शाने ।पराभृतम्। परा। भृतम् ।वसु ।स्पार्हम् ।तत् ।आ ।भर॥

पदार्थ : हे (इन्द्र) मेरे वीर अन्तरात्मन् ! (यत्) जो धन (वीडौ) दृढ़ मनुष्य में, (यत्) जो धन (स्थिरे) अविचल मनुष्य में, (यत्) जो धन (पर्शाने) बादल के समान सींचनेवाले दानशील मनुष्य में (पराभृतम्) दूर देश से भी ले आया जाता है, (तत्) वह (स्पार्हम्) चाहने योग्य (वसु) आध्यात्मिक तथा भौतिक धन (आ भर) तू अपने पास ला, प्राप्त कर ॥३॥

भावार्थ : संसार में दृढ़ स्वभाववाले, सैकड़ों विघ्नों से भी विचलित न किये जानेवाले परोपकारी जन अपने पराक्रम से जिस ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेते हैं, उसे मैं क्यों नहीं पा सकता। हे मेरे अन्तरात्मन् ! तू भी दृढ़, अविचल और बरसानेवाला होकर सब प्रकार का धन सञ्चित कर ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तृतीय ऋक् पूर्वार्चिके २०७ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानमाचार्यं च सम्बोधिता। अत्र स्वान्तरात्मानं सम्बोधयति।

पदपाठ : यत्। वीडी ।इन्द्र। यत्। स्थिरे ।यत् ।पर्शाने ।पराभृतम्। परा। भृतम् ।वसु ।स्पार्हम् ।तत् ।आ ।भर॥

पदार्थ : हे (इन्द्र) वीर मदीय अन्तरात्मन् ! (यत्) यद् वसु धनम् (वीडौ) दृढे मनुष्ये, (यत्) यद् वसु धनम् (स्थिरे) अविचले मनुष्ये, (यत्) यद् वसु धनम् (पर्शाने) मेघवत् सेचके दानशीले मनुष्ये। [पर्शान इति मेघनाम। निघं० १।१०।] (पराभृतम्) दूरदेशादपि हृतम् आनीतं भवति, (तत् स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) आध्यात्मिकं भौतिकं च धनम् (आ भर) त्वम् उपलभस्व ॥३॥

भावार्थ : जगति दृढस्वभावा विघ्नशतैरप्यविचाल्यमानाः परोपकारिणो जनाः स्वपराक्रमेण यदैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति तदहं कुतो न प्राप्तुं शक्नोमि। हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वमपि दृढोऽविचलो वर्षकश्च भूत्वा सर्वविधमपि धनं संचिनु ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।४५।४१, अथ० २०।४३।२, साम० २०७।