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Samveda/1078

रसं ते मित्रो अर्यमा पिबन्तु वरुणः कवे। पवमानस्य मरुतः (ल)।।॥१०७८

Veda : Samveda | Mantra No : 1078

In English:

Seer : kashyapo maariichaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : rasa.m te mitro aryamaa pibantu varuNaH kave . pavamaanasya marutaH.1078

Component Words :
rasam .te. mitraH. mi .traH .aryamaa .pibantu .varuNaH .kave .pavamaanasya. marutaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कश्यपो मारीचः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : आगे पुनः वही विषय कहा गया है।

पदपाठ : रसम् ।ते। मित्रः। मि ।त्रः ।अर्यमा ।पिबन्तु ।वरुणः ।कवे ।पवमानस्य। मरुतः॥

पदार्थ : हे (कवे) मेधावी विद्वद्वर आचार्य ! (पवमानस्य ते) शिष्यों के जीवनों को पवित्र करनेवाले आपके (रसम्) विद्यारस को (मित्रः) सबके साथ मित्रवत् व्यवहार करनेवाला शिष्य, (वरुणः) अपने दोषों का निवारण करने के लिए प्रयत्नशील शिष्य, (अर्यमा) शत्रुओं का निग्रह करनेवाला शिष्य, (मरुतः) और अन्य सभी शिष्य (पिबन्तु) पान करें ॥३॥

भावार्थ : शिष्यों की विभिन्न योग्यताएँ और विभिन्न गुण होते हैं। उनकी योग्यता के अनुसार उनका विकास गुरुओं को करना चाहिए। जिस-जिसमें ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व आदि के गुण हों, उस-उसको उसके अनुरूप विद्यादान से उस-उस वर्ण का अधिकारी बनाना चाहिए ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : कश्यपो मारीचः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

पदपाठ : रसम् ।ते। मित्रः। मि ।त्रः ।अर्यमा ।पिबन्तु ।वरुणः ।कवे ।पवमानस्य। मरुतः॥

पदार्थ : हे (कवे) मेधाविन् विद्वद्वर आचार्य ! (पवमानस्य ते) शिष्याणां जीवनानि पवित्रीकुर्वतः तव (रसम्) विद्यारसम् (मित्रः) सर्वैः सह मित्रवद् व्यवहर्ता शिष्यः, (अर्यमा) शत्रुनिग्रहकर्ता शिष्यः। [अर्यमा अरीन् नियच्छति। निरु० ११।२३।] (वरुणः) स्वदोषनिवारणाय प्रयत्नशीलः शिष्यः, (मरुतः) अन्ये च शिष्याः (पिबन्तु) आस्वादयन्तु ॥३॥

भावार्थ : शिष्याणां विभिन्ना योग्यता विभिन्ना गुणाश्च भवन्ति। तेषां योग्यतानुसारं तद्विकासो गुरुभिः कर्त्तव्यः। यस्मिन् यस्मिन् ब्राह्मणत्व-क्षत्रियत्व- वैश्यत्वादिगुणाः सन्ति स तदनुरूपविद्यादानेन तत्तद्वर्णाधिकारी कार्यः ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।६४।२४, ‘पिबन्तु’ इत्यत्र ‘पिब॑न्ति॒’।