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Samveda/1118

सयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमते न गावः। परीणसं कृणुते तिग्मशृङ्गो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः॥१११८

Veda : Samveda | Mantra No : 1118

In English:

Seer : vRRiShagaNo vaasiShThaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : sa yojata urugaayasya juuti.m vRRithaa kriiDanta.m mimate na gaavaH . pariiNasa.m kRRiNute tigmashRRi~Ngo divaa harirdadRRishe naktamRRijraH.1118

Component Words :
saH .yojate .uruugaayasya .uru .gaayasya .juutim .vRRidhaa .kriiDantam .mimate .na .gaavaH .pariiNasam .pari .nasam .kRRiNute .tigmashRRi~NgaH. tigma .shRRi~Nga .divaa .hariH. dadRRishe .naktam. RRijraH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वृषगणो वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में आचार्य शिष्यों को यह उपदेश दे रहा है कि चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है।

पदपाठ : सः ।योजते ।उरूगायस्य ।उरु ।गायस्य ।जूतिम् ।वृधा ।क्रीडन्तम् ।मिमते ।न ।गावः ।परीणसम् ।परि ।नसम् ।कृणुते ।तिग्मशृङ्गः। तिग्म ।शृङ्ग ।दिवा ।हरिः। ददृशे ।नक्तम्। ऋज्रः॥

पदार्थ : (सः) वह सोम चन्द्रमा (उरुगायस्य) विस्तीर्ण ग्रहोपग्रहों में जिसका प्रकाश पहुँचता है, ऐसे सूर्य के (जूतिम्) वेगवान् किरणसमूह को (योजते) अपने साथ जोड़ता है। (वृथा) अनायास (क्रीडन्तम्) भूमि और सूर्य के चारों ओर क्रीड़ा करनेवाले उस चन्द्रमा को (गावः) सूर्यकिरणें (न मिमते) सम्पूर्ण रूप में व्याप्त नहीं करतीं, किन्तु जितने भाग में सूर्यकिरणें पहुँचती हैं, चन्द्रमा का उतना ही भाग प्रकाशित होता है। तो भी कभी-कभी (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्ण किरणोंवाला सूर्य चन्द्रमा को (परीणसम्) परि व्याप्त (कृणुते) कर लेता है, तब पूर्णिमा में चन्द्रमा पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है। वह चन्द्रमा (दिवा) दिन में (हरिः) हरा-काला सा (ददृशे) दिखाई देता है, (नक्तम्) रात्रि में (ऋज्रः) शुभ्र ॥३॥

भावार्थ : पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और चन्द्रमा पृथिवी के चारों ओर घूमता-घूमता पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। चन्द्रमा सूर्य की किरणों से प्रकाशित होता है। चन्द्रमा की जितनी कलाओं पर सूर्य-किरणें पहुँचती हैं, उतनी ही कलाएँ प्रकाशित दिखती हैं। प्रतिपदा को एक कला, द्वितीया को दो कलाएँ, तृतीया को तीन कलाएँ, अष्टमी को आठ कलाएँ, और पूर्णमासी को सब कलाएँ प्रकाशित होती हैं। अमावस्या को चन्द्रमा पर कहीं भी सूर्य-किरणों के न पहुँचने से सारा ही चन्द्र-मण्डल अन्धकार से ढका रहता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूर्य-किरणें हमेशा चन्द्रमा के एक गोलार्ध पर ही पड़ती हैं, अतः दूसरे गोलार्ध में सदा अन्धेरा ही रहता है। गुरुओं को चाहिए कि चन्द्रमा के प्रकाशित होने का यह नियम तथा भूगोल और खगोल सम्बन्धी अन्य भी नियम शिष्यों को उपदेश करते रहें ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : वृषगणो वासिष्ठः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथाचार्यः शिष्यान् सूर्याच्चन्द्रमसः प्रकाशनमाह।

पदपाठ : सः ।योजते ।उरूगायस्य ।उरु ।गायस्य ।जूतिम् ।वृधा ।क्रीडन्तम् ।मिमते ।न ।गावः ।परीणसम् ।परि ।नसम् ।कृणुते ।तिग्मशृङ्गः। तिग्म ।शृङ्ग ।दिवा ।हरिः। ददृशे ।नक्तम्। ऋज्रः॥

पदार्थ : (सः) असौ सोमः चन्द्रः (उरुगायस्य) उरुषु विस्तीर्णेषु लोकेषु ग्रहोपग्रहेषु गायः प्रकाशगतिः यस्य तस्य सूर्यस्य (जूतिम्) वेगवन्तं किरणसमूहम् (योजते) स्वात्मना योजयति। (वृथा) अनायासम् (क्रीडन्तम्) भूमिं सूर्यं च परितः आकाशे विहरन्तं तं चन्द्रम् (गावः) सूर्यकिरणाः (न मिमते) सम्पूर्णतया न परिच्छिन्दन्ति। [माङ् माने शब्दे च जुहोत्यादिः।] यावति भागे सूर्यकिरणाः पतन्ति चन्द्रस्य तावानेव भागः प्रकाशितो दृश्यत इति भावः। तथापि कदाचित् (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्णकिरणः सूर्यः चन्द्रमसम् (परीणसम्) परितो व्याप्तम्। [नसतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (कृणुते) करोति, तदा च पूर्णिमायां चन्द्रः, पूर्णतः प्रकाशितो जायते। स चन्द्रः (दिवा) दिवसे (हरिः) हरितः कृष्णवर्णः (ददृशे) दृश्यते, (नक्तम्) रात्रौ च (ऋज्रः) शुभ्रः ॥३॥

भावार्थ : पृथिवी सूर्यं परितो भ्रमति, चन्द्रमाश्च पृथिवीं परितो भ्रमन् पृथिव्या सह सूर्यमपि परिक्राम्यति। चन्द्रः सूर्यकिरणैः प्रकाश्यते। यावतीषु चन्द्रकलासु सूर्यरश्मयः पतन्ति तावत्य एव चन्द्रकलाः प्रकाशिता दृश्यन्ते। प्रतिपद्येका कला, द्वितीयायां द्वे कले,तृतीयायां तिस्रः कलाः प्रकाशन्ते। अमावस्यायां च चन्द्रे कुत्रापि सूर्यरश्मीनामपतनाच्चन्द्रमण्डलमन्धकारावृतं जायते। एतदप्यवधेयं यत् सूर्यरश्मयः सदा चन्द्रस्यैकस्मिन्नेव गोलार्द्धे पतन्ति, तस्माद् द्वितीयो गोलार्धः सदाऽन्धकारित एव तिष्ठति। चन्द्रप्रकाशस्य स नियमो भूगोलखगोलयोरन्ये चापि नियमा गुरुभिः शिष्यान् प्रत्युपदेष्टव्याः ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।९७।९ ‘सं र॑हंत उरुगा॒यस्य॑’ इति पाठः।