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Samveda/1138

आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम्। पान्तमा पुरुस्पृहम्॥११३८

Veda : Samveda | Mantra No : 1138

In English:

Seer : bhRRigurvaaruNirjamadagnirbhaargavo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa mandramaa vareNyamaa vipramaa maniiShiNam . paantamaa puruspRRiham.1138

Component Words :
aa .mandram .aa. vareNyam .aa .vipram .vi. prama .aa .maniiShiNam .paantam .aa .puruspRRiham. puru .spRRiham.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और आचार्य का विषय है।

पदपाठ : आ ।मन्द्रम् ।आ। वरेण्यम् ।आ ।विप्रम् ।वि। प्रम ।आ ।मनीषिणम् ।पान्तम् ।आ ।पुरुस्पृहम्। पुरु ।स्पृहम्॥

पदार्थ : हे सोम अर्थात् ज्ञान-रस वा ब्रह्मानन्द-रस के प्रेरक परमात्मन् वा आचार्य ! हम (मन्द्रम्) आनन्दप्रदायक आपको (आ) वरते हैं, (वरेण्यम्) वरणीय आपको (आ) वरते हैं, (विप्रम्) विशेष रूप से धन-धान्य-विद्या-आरोग्य आदियों से पूर्ण करनेवाले आपको (आ) वरते हैं, (मनीषिणाम्) मनीषी आपको (आ) वरते हैं, (पान्तम्) विघ्न, विपत्ति, अविद्या आदि से रक्षा करनेवाले और (पुरुस्पृहम्) बहुत स्पृहणीय आपको (आ) वरते हैं। [यहाँ आ की बार-बार आवृत्ति की गयी है। उसके साथ ‘वृणीमहे’ पद पूर्वमन्त्र से आ जाता है] ॥११॥

भावार्थ : असंख्य गुणों से विभूषित, शुभ गुण-कर्म-स्वभाववाले, विपत्तियों को दूर करनेवाले, सम्पत्तिप्रदाता, विद्या-आनन्द आदि प्राप्त करानेवाले, सरस सोम-नामक परमात्मा और आचार्य को वर कर, उपासना और सत्कार करके अपरिमित लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥११॥


In Sanskrit:

ऋषि : भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनराचार्यविषयं परमात्मविषयं चाह।

पदपाठ : आ ।मन्द्रम् ।आ। वरेण्यम् ।आ ।विप्रम् ।वि। प्रम ।आ ।मनीषिणम् ।पान्तम् ।आ ।पुरुस्पृहम्। पुरु ।स्पृहम्॥

पदार्थ : हे सोम ज्ञानरसस्य ब्रह्मानन्दरसस्य वा प्रेरक परमात्मन् आचार्य वा ! वयम् (मन्द्रम्) आनन्दकरं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (वरेण्यम्) वरणीयं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (विप्रम्) विशेषेण प्राति धनधान्यविद्यारोग्यादिभिः पूरयतीति तादृशं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (मनीषिणम्) मेधाविनं प्राज्ञं त्वाम् (आ) आवृणीमहे, (पान्तम्) विघ्नविपद्विद्यादिभ्यो रक्षकम् (पुरुस्पृहम्) बहुस्पृहणीयं च त्वाम् (आ) आवृणीमहे। [आ इत्यस्यावृत्तौ वृणीमहे इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते] ॥११॥

भावार्थ : असंख्यगुणगणविभूषितं शुभगुणकर्मस्वभावं विपत्तिविदारकं संपत्प्रदातारं विद्यानन्दादिप्रदं सरसं सोमं परमात्मानमाचार्यं च वृत्वा समुपास्य सत्कृत्य चापरिमिता लाभाः सर्वैः प्राप्तव्याः ॥११॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।६५।२९।