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Samveda/1245

कविमिव प्रशस्यं यं देवास इति द्विता। नि मर्त्येष्वादधुः॥१२४५

Veda : Samveda | Mantra No : 1245

In English:

Seer : ushanaa kaavyaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : kavimiva prasha.m sya.m ya.m devaasa iti dvitaa . ni martyeShvaadadhuH.1245

Component Words :
kavim. iva .prashasyam .pra .shasyam .yam .devaasaH. iti .dvitaa. ni .martyeShu .aadadhuH. aa .dadhuH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : उशना काव्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और राजा का विषय वर्णित है।

पदपाठ : कविम्। इव ।प्रशस्यम् ।प्र ।शस्यम् ।यम् ।देवासः। इति ।द्विता। नि ।मर्त्येषु ।आदधुः। आ ।दधुः॥

पदार्थ : प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (कविम् इव) कवि के समान (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीय (यम्) जिस अग्नि अर्थात् अग्रनायक परमात्मा को (देवासः इति) दिव्य गुणोंवाले योग-प्रशिक्षक वा योगी लोग (द्विता) पालनार्थ तथा शत्रुओं से रक्षार्थ इन दो प्रयोजनों के लिए (मर्त्येषु) योगाभ्यासी मनुष्यों में (नि आदधुः) योगविधि से अनुभव कराते हैं, उसकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ ‘स्तुषे’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है ॥]द्वितीय—राजा के पक्ष में। (कविम् इव) कवि के समान (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीय (यम्) जिस अग्नि अर्थात् अग्रनायक राजा को (देवासः इति) दिव्य गुणोंवाले पुरोहित लोग (द्विता) प्रजा के पालनार्थ तथा शत्रुओं से रक्षार्थ दोनों कर्मों के लिए (मर्त्येषु) प्रजाजनों के बीच (नि आदधुः) राजगद्दी पर स्थित करते हैं, उसकी मैं (स्तुषे) गुण-वर्णन-रूप स्तुति करता हूँ ॥२॥

भावार्थ : जैसे ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमेश्वर लोगों को पालता और उनके शत्रुओं को पराजित करता है, वैसे ही वही राष्ट्र में राजा होने योग्य है, जो प्रजाओं की पालना तथा शत्रुओं का पराजय कर सकता हो ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : उशना काव्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि परमात्मनृपती वर्ण्येते।

पदपाठ : कविम्। इव ।प्रशस्यम् ।प्र ।शस्यम् ।यम् ।देवासः। इति ।द्विता। नि ।मर्त्येषु ।आदधुः। आ ।दधुः॥

पदार्थ : (कविम् इव) काव्यकारमिव (प्रशंस्यम्) प्रशंसनीयम् (यम्) अग्निम् अग्रनायकं परमात्मानं राजानं वा (देवासः इति) दिव्यगुणाः योगप्रशिक्षका योगिनः पुरोहिताः वा (द्विता) पालनार्थं शत्रुभ्यस्त्राणार्थं चेति द्वाभ्यां प्रयोजनाभ्याम् (मर्त्येषु) योगाभ्यासिषु मनुष्येषु राष्ट्रवासिषु प्रजासु वा (नि आदधुः) योगविधिना अनुभावयन्ति राजत्वेन स्थापयन्ति वा, तमहं ‘स्तुषे’ इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥२॥

भावार्थ : यथा ब्रह्माण्डस्य सम्राट् परमेश्वरो जनान् पालयति तेषां शत्रूंश्च पराजयते तथैव राष्ट्रेऽपि स एव राजा भवितुं योग्यो यः प्रजाः पालयितुं शत्रूंश्च पराजेतुं शक्नोति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।८४।२, ‘क॒विमि॑व॒ प्रचे॑तसं॒ यं दे॒वासो॒ अध॑ द्वि॒ता’ इति पाठः।