Samveda/1279
एतं त्य हरितो दश मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भते (बी)।।॥१२७९
Veda : Samveda | Mantra No : 1279
In English:
Seer : raahuugaNa aa~NgirasaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : eta.m tya.m harito dasha marmRRijyante apasyuvaH . yaabhirmadaaya shumbhate.1279
Component Words : etam. tyam .haritaH. dasha .marmRRijyante. apasyuvaH .yaabhiH .madaaya .shumbhate.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : राहूगण आङ्गिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अब देह में स्थित जीवात्मा के साधनों का वर्णन करते हैं।
पदपाठ : एतम्। त्यम् ।हरितः। दश ।मर्मृज्यन्ते। अपस्युवः ।याभिः ।मदाय ।शुम्भते॥
पदार्थ : (एतं त्यम्) इस उस देहधारी जीवात्मा को (अपस्युवः) ज्ञान और कर्म के उपार्जन की इच्छुक (दश हरितः) दस इन्द्रियाँ (मर्मृज्यन्ते) अतिशय अलङ्कृत करती हैं, (याभिः) जिन दस इन्द्रियों से वह (मदाय) सुखभोगार्थ (शुम्भते) शोभित होता है ॥६॥
भावार्थ : यदि शरीर में ज्ञान प्राप्त करनेवाला और कर्म करनेवाला जीवात्मा मन, बुद्धि एवं प्राणों सहित ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप साधनों को न प्राप्त करे तो, कैसे सफल हो सकता है ॥६॥इस खण्ड में जीवात्मा और परमारत्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥दशम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
In Sanskrit:
ऋषि : राहूगण आङ्गिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ देहस्थस्य जीवात्मनः साधनानि वर्णयति।
पदपाठ : एतम्। त्यम् ।हरितः। दश ।मर्मृज्यन्ते। अपस्युवः ।याभिः ।मदाय ।शुम्भते॥
पदार्थ : (एतं त्यम्) अमुं देहधारिणं जीवात्मानम् (अपस्युवः) ज्ञानकर्मोपार्जनकामाः (दश हरितः) दश स्वस्वविषयहारीणि इन्द्रियाणि (मर्मृज्यन्ते) अतिशयेन अलङ्कुर्वन्ति। [मृजू शौचालङ्कारयोः, चुरादिः] (याभिः) यैर्दशभिः इन्द्रियैः सः (मदाय) सुखभोगाय (शुम्भते) शोभते। [शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः। आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥६॥
भावार्थ : यदि देहे ज्ञाता कर्मकर्ता च जीवात्मा मनोबुद्धिप्राणसहितानि ज्ञानकर्मेन्द्रियरूपाणि साधनानि न प्राप्नुयात् तर्हि कथं सफलो भवेत् ॥६॥अस्मिन् खण्डे जीवात्मपरमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।३८।३।