Samveda/1534
उदग्ने शुचयस्तव शुक्रा भ्राजन्त ईरते। तव ज्योतीष्यर्चयः (ली)।।॥१५३४
Veda : Samveda | Mantra No : 1534
In English:
Seer : viruupa aa~NgirasaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : udagne shuchayastava shukraa bhraajanta iirate . tava jyotii.m ShyarchayaH.1534
Component Words : ut . agne . shuchayaH . tava . shukraaH . bhraajantaH . iirate . tava . jyotiShi . archayaH.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में परमात्माग्नि का विषय है।
पदपाठ : उत् । अग्ने । शुचयः । तव । शुक्राः । भ्राजन्तः । ईरते । तव । ज्योतिषि । अर्चयः॥
पदार्थ : हे (अग्ने) तेजस्वी परमात्मन् ! (तव) आपकी रची हुई (शुचयः) पवित्र, (शुक्राः) प्रदीप्त, (भ्राजन्तः) जगमगानेवाली (अर्चयः) बिजली, सूर्य आदि की प्रभाएँ (तव ज्योतींषि) आपकी ज्योतियों को (उदीरते) प्रकट कर रही हैं ॥उपनिषद् के ऋषि ने भी कहा है—परमेश्वर की चमक के आगे न सूर्य की कुछ चमक है, न चाँद-तारों की चमक है, न बिजलियों की चमक है। उसी की चमक से जगत् का यह सब कुछ चमक रहा है (कठ० ५।१५) ॥३॥
भावार्थ : इस ब्रह्माण्ड में आग, बिजली, सूर्य, तारे आदि जो भी ज्योतियाँ हैं, वे सब मिलकर भी ब्रह्म की महा-ज्योति की एक किनकी भी प्रकट करने में असमर्थ हैं ॥३॥इस खण्ड में परमात्मा, राजा और अग्नि तत्त्व का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥चौदहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥चौदहवाँ अध्याय समाप्त ॥सप्तम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
In Sanskrit:
ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ पुनः परमात्माग्निविषय उच्यते।
पदपाठ : उत् । अग्ने । शुचयः । तव । शुक्राः । भ्राजन्तः । ईरते । तव । ज्योतिषि । अर्चयः॥
पदार्थ : हे (अग्ने) तेजोमय परमात्मन् ! (तव) त्वदीयाः, त्वद्रचिता इत्यर्थः (शुचयः) पवित्राः, (शुक्राः) दीप्ताः, (भ्राजन्तः) भ्राजमानाः (अर्चयः) विद्युत्सूर्यादिप्रभाः (तव ज्योतींषि) त्वीयानि तेजांसि (उदीरते) उद्गमयन्ति, द्योतयन्ति। [उक्तं च ऋषिणा—न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठ० ५।१५) इति] ॥३॥
भावार्थ : ब्रह्माण्डेऽस्मिन् वह्निविद्युत्सूर्यतारकादीनि यान्यपि ज्योतींषि सन्ति तानि सर्वाणि मिलित्वापि ब्रह्मणो महाज्योतिषः कणिकामपि प्रकटयितुं नालं भवन्ति ॥३॥अस्मिन् खण्डे परमात्मनृपत्योरग्नितत्त्वस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।४४।१७।