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Samveda/1650

मा नो अग्ने महाधने परा वर्ग्भारभृद्यथा। संवर्ग स रयिं जय (प)।। [धा. । उ । स्व. ।]॥१६५०

Veda : Samveda | Mantra No : 1650

In English:

Seer : viruupa aa~NgirasaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : maa no agne mahaadhane paraa vargbhaarabhRRidyathaa . sa.mvarga.m sa.m rayi.m jaya.1650

Component Words :
maa . naH . agne . mahaadhane . mahaa . dhane . paraa . varka . bhaarabhRRit . bhaara . bhRRita . yathaa . samavargam . sam . vargam . sam . rayim . jaya.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर उन्हीं से प्रार्थना है।

पदपाठ : मा । नः । अग्ने । महाधने । महा । धने । परा । वर्क । भारभृत् । भार । भृत । यथा । समवर्गम् । सम् । वर्गम् । सम् । रयिम् । जय॥

पदार्थ : हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन्, राजन् वा योगिराज ! (महाधने) जीवन-सङ्ग्राम में आप (नः) हमें (मा परावर्ग्) बीच में ही मत छोड़ दीजिए, (भारभृत् यथा) जैसे जिसने रक्षा का भार लिया हुआ है, वह रक्षणीय को बीच में ही नहीं छोड़ देता, अथवा जैसे बोझ को दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए नियुक्त किया हुआ मनुष्य भार को बीच में ही नहीं छोड़ देता। साथ ही आप (संवर्गम्) जिससे पाप-ताप आदि कटते हैं, ऐसे (रयिम्) आध्यात्मिक धन को, अथवा (संवर्गम्)जिससे दीन जनों के दुःख कटते हैं, ऐसे (रयिम्) भौतिक धन को (संजय) प्राप्त कराइये ॥३॥

भावार्थ : जो परमात्मा वा योगिराज की शरण में जाते हैं, उन्हें वह बीच में ही न छोड़कर देवासुरसङ्ग्राम में विजयी करता है। वैसे ही राजा को भी चाहिए कि प्रजाजनों द्वारा प्रारम्भ किये गये महान् कार्यों में उन्हें बीच में ही न छोड़कर धन आदि से उनकी सहायता करके उन्हें सफलता तक पहुँचाये ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : विरूप आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि त एव प्रार्थ्यन्ते।

पदपाठ : मा । नः । अग्ने । महाधने । महा । धने । परा । वर्क । भारभृत् । भार । भृत । यथा । समवर्गम् । सम् । वर्गम् । सम् । रयिम् । जय॥

पदार्थ : हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन् राजन् योगिराड् वा ! (महाधने) जीवनसंग्रामे। [महाधन इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २।१७।] त्वम् (नः) अस्मान् (मा परावर्ग्) मध्य एव मा परित्याक्षीः। [वृजी वर्जने रुधादिः, लोडर्थे लुङि परावर्जीः इति प्राप्ते छान्दसं रूपम्।] (भारभृत् यथा) यथा गृहीतरक्षाभारो जनः रक्ष्यं मध्ये न परित्यजति, यद्वा यथा भारस्य स्थानान्तरप्रापणाय नियुक्तो जनो भारं मध्ये न परित्यजति। किञ्च, त्वम् (संवर्गम्) संवृज्यन्ते पापतापादयो येन तादृशम् (रयिम्) अध्यात्मं धनम् यद्वा (संवर्गम्) संवृज्यन्ते दीनजनानां दुःखानि येन तादृशम् (रयिम्) भौतिकं धनम्(संजय) संप्रापय ॥३॥

भावार्थ : ये परमात्मानं योगिराजं वा शरणं प्रपद्यन्ते तान् स मध्य एवाऽपरित्यज्य देवासुरसंग्रामे विजेतॄन् करोति। तथैव नृपतिरपि प्रजाजनान् प्रारब्धेषु महाकार्येषु मध्य एवाऽपरित्यज्य धनादिना तेषां साहाय्यं कृत्वा तान् सफलतां प्रापयेत् ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।७५।१२, ‘मा नो॑ अ॒स्मिन् म॑हाध॒ने’ इति प्रथमः पादः।