Samveda/1706
उप च्छायामिव घृणेरगन्म शर्म ते वयम्। अग्ने हिरण्यसन्दृशः॥१७०६
Veda : Samveda | Mantra No : 1706
In English:
Seer : bharadvaajo baarhaspatyaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : upa chChaayaamiva ghRRiNeraganma sharma te vayam . agne hiraNyasandRRishaH.1706
Component Words : upa . Chaayaam . iva . ghRRiNeH . aganma . sharma . te . vayam . agne . hiraNyasandRRishaH . hiraNva . sandRRishaH.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा को कहते हैं।
पदपाठ : उप । छायाम् । इव । घृणेः । अगन्म । शर्म । ते । वयम् । अग्ने । हिरण्यसन्दृशः । हिरण्व । सन्दृशः॥
पदार्थ : हे (अग्ने) अग्रनायक, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (वयम्) हम आपके उपासक (हिरण्यसंदृशः) सोने के समान रमणीय (ते) आपकी (शर्म) शरण में (अगन्म) पहुँच गये हैं, (घृणेः) सूर्य के ताप से हटकर (छायाम् इव) जैसे छाया में पहुँचते हैं ॥२॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥२
भावार्थ : जैसे सूर्य की धूप से तपे हुए सिरवाला, पसीने से तर-बतर शरीरवाला, गर्मी से व्याकुल कोई मनुष्य विश्राम के लिए वृक्ष आदि की छाया का आश्रय लेता है, वैसे ही आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विविध कष्टों से व्याकुल लोग विश्राम पाने के उद्देश्य से यदि परमात्मा की शरण में पहुँचते हैं, तो वे सब दुःखों से छूटकर अत्यन्त आनन्दवान् हो जाते हैं ॥२॥
In Sanskrit:
ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ पुनः परमात्मानमाह।
पदपाठ : उप । छायाम् । इव । घृणेः । अगन्म । शर्म । ते । वयम् । अग्ने । हिरण्यसन्दृशः । हिरण्व । सन्दृशः॥
पदार्थ : हे (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (वयम्) तवोपासकाः (हिरण्यसन्दृशः) सुवर्णसदृशरमणीयस्य (ते) तव (शर्म) शरणम् (उप अगन्म) उपगताः स्मः, (घृणेः) सूर्यतापात् (छायामिव) यथा छायाम् उपगच्छन्ति तथा ॥२॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थ : यथा सूर्यातापात् तप्तशिरस्कः स्विद्यद्गात्रः धर्माकुलः कश्चिद् विश्रामाय वृक्षादिच्छायामाश्रयते तथैवाध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकै- र्विविधैः कष्टैराकुला जना विश्रान्त्यै परमात्मशरणमुपगच्छन्ति चेत्तर्हि ते सर्वदुःखेभ्यो विमुक्ताः सन्तो नितरामानन्दिनो जायन्ते ॥२॥
टिप्पणी:१. ऋ० ६।१६।३८।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वांसं सम्बोधितः।