Samveda/1727
उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि। उतोषो वस्व ईशिषे (लि)।। [धा. । उ नास्ति । स्व. ।]॥१७२७
Veda : Samveda | Mantra No : 1727
In English:
Seer : vaamadevo gautamaH | Devta : uShaaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : uta sakhaasyashvinoruta maataa gavaamasi . utoSho vasva iishiShe.1727
Component Words : uta . sakhaa . sa . khaa . asi . ashvinoH . uta . maataa . gavaam . asi . uta . uShaH . vasvaH . iishiShe.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वामदेवो गौतमः | देवता : उषाः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : आगे फिर प्राकृतिक और दिव्य उषा वर्णित है।
पदपाठ : उत । सखा । स । खा । असि । अश्विनोः । उत । माता । गवाम् । असि । उत । उषः । वस्वः । ईशिषे॥
पदार्थ : प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (उत) और, हे (उषः) उषा ! तू (अश्विनोः) द्यावापृथिवी की (सखा) सहचरी (असि) है (उत) और (गवाम्) किरणों की (माता) माता (असि) है। (उत) और, तू (वस्वः) प्रकाशरूप धन की (ईशिषे) अधीश्वरी है ॥द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (उत) और, हे (उषः) उषा के समान वर्तमान ऋतम्भरा प्रज्ञा ! तू (अश्विनोः) योगी के आत्मा और मन की (सखा) सहचरी (असि) है, (उत) और (गवाम्) ईश्वरीय प्रकाशों की (माता) माता (असि) है। (उत) और तू (वस्वः) योग-समाधि रूप धन की (ईशिषे) अधिष्ठात्री है ॥३॥यहाँ श्लेष अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : जैसे प्राकृतिक उषा द्यावापृथिवी में व्याप्त होकर ज्योतिरूप धन से सबको धनवान् कर देती है, वैसे ही योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा आत्मा और मन में व्याप्त होकर योगसिद्धियों के धन से योगियों को कृतार्थ करती है ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : वामदेवो गौतमः | देवता : उषाः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ पुनरपि प्राकृतिकीं दिव्यां चोषसं वर्णयति।
पदपाठ : उत । सखा । स । खा । असि । अश्विनोः । उत । माता । गवाम् । असि । उत । उषः । वस्वः । ईशिषे॥
पदार्थ : प्रथमः—प्राकृतिक्या उषसः पक्षे। (उत) अथ, हे (उषः) प्रभातकान्ते ! त्वम् (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योः (सखा) सहचारिणी (असि) वर्तसे, (उत) अपि च (गवाम्) किरणानाम् (माता) जननी (असि) वर्तसे। (उत) अपि च, त्वम् (वस्वः) प्रकाशरूपस्य धनस्य (ईशिषे) अधीश्वरी विद्यसे ॥द्वितीयः—दिव्याया उषसः पक्षे। (उत) अथापि, हे (उषः) उषर्वद् विद्यमाने ऋतम्भरे प्रज्ञे त्वम् (अश्विनोः) योगिनः आत्ममनसोः (सखा) सहचारिणी (असि) विद्यसे, (उत) अपि च (गवाम्) ईश्वरीयप्रकाशानाम् (माता) जननी (असि) विद्यसे। (उत) अपि च, त्वम् (वस्वः) योगसमाधिरूपस्य धनस्य (ईशिषे) अधिष्ठात्री वर्तसे ॥३॥२अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
भावार्थ : यथा प्राकृतिक्युषा द्यावापृथिव्यावभिव्याप्य ज्योतिर्धनेन सर्वान् धनवतः करोति तथैव योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञाऽऽत्ममनसी अभिव्याप्य योगसिद्धिधनेन योगिनः कृतार्थयति ॥३॥
टिप्पणी:१. ऋ० ४।५२।३।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दस्वामी मन्त्रमिमं ‘सैव स्त्री सुखप्रदा या सुहृद्वदाज्ञानुकारिणी सेविका वर्तते, सैवोषर्वत् कुलप्रकाशिका भवति’ इति विषये व्याचष्टे।