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Samveda/1736

यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः। आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवम् (भा)।।॥१७३६

Veda : Samveda | Mantra No : 1736

In English:

Seer : gotamo raahuugaNaH | Devta : ashvinau | Metre : uShNik | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yaavitthaa shlokamaa divo jyotirjanaaya chakrathuH . aa na uurja.m vahatamashvinaa yuvam.1736

Component Words :
yau . itthaa . shlokam . aa . divaH . jyotiH . janaaya . chakrathuH . aa . naH . uurjam . vahatam . ashvinaa . yuvam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : अश्विनौ | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : आगे फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदपाठ : यौ । इत्था । श्लोकम् । आ । दिवः । ज्योतिः । जनाय । चक्रथुः । आ । नः । ऊर्जम् । वहतम् । अश्विना । युवम्॥

पदार्थ : हे (अश्विनौ) जीवन में व्याप्त प्राणापानो ! (यौ) जो तुम दोनों (इत्था) सचमुच (जनाय) योगसाधक मनुष्य के लिए (दिवः) तेजस्वी जीवात्मा की (श्लोकम्) स्तुतियोग्य (ज्योतिः) ज्योति (चक्रथुः) उत्पन्न करते हो, वे (युवम्) तुम दोनों (नः) हमें (ऊर्जम्) बल (आवहतम्) प्राप्त कराओ ॥३॥

भावार्थ : प्राणायाम द्वारा प्रकाश पर पड़े हुए आवरण के क्षय से ज्योति की प्राप्ति और आत्मा तथा प्राण के बल की प्राप्ति होने पर धारणाओं में मन की योग्यता हो जाती है ॥३॥इस खण्ड में प्राकृतिक और दिव्य उषा, ॠतम्भरा प्रज्ञा, आत्मा-मन, जगदम्बा और प्राण-अपान के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥उन्नीसवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : गोतमो राहूगणः | देवता : अश्विनौ | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदपाठ : यौ । इत्था । श्लोकम् । आ । दिवः । ज्योतिः । जनाय । चक्रथुः । आ । नः । ऊर्जम् । वहतम् । अश्विना । युवम्॥

पदार्थ : हे (अश्विनौ) जीवनप्याप्तौ प्राणापानौ ! (यौ) यौ युवाम् (इत्था) सत्यम् (जनाय) योगसाधकाय मनुष्याय (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (श्लोकम्) उपश्लोक्यं स्तुत्यम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (चक्रथुः) कुरुतः, तौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (ऊर्जम्) बलम्। [ऊर्ज बलप्राणनयोः, चुरादिः।] (आ वहतम्) प्रापयतम् ॥३॥२

भावार्थ : प्राणायामेन प्रकाशावरणक्षयात् ज्योतिष्प्राप्तौ सत्याम् आत्मप्राणयोर्बले च प्राप्ते धारणासु मनसो योग्यता जायते ॥३॥३अस्मिन् खण्डे प्राकृतिक्या दिव्यायाश्चोषसः ऋतम्भरायाः प्रज्ञाया आत्ममनसोर्जगदम्बायाः प्राणापानयोश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।९२।१७।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं वायुविद्युतोर्विषये व्याचष्टे।३. द्रष्टव्यम् योग०, साधनपादः, ४९-५३।