Samveda/21
अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम्। अच्छा नप्त्रे सहस्वते॥२१
Veda : Samveda | Mantra No : 21
In English:
Seer : prayogo bhaargavaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : agni.m vo vRRidhantamadhvaraaNaa.m puruutamam . achChaa naptre sahasvate.21
Component Words : agnim. vaH. vRRidhantam. adhvaraaNaam. puruutamam. achCha. naptre. sahasvate
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : प्रयोगो भार्गवः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम मन्त्र में परमात्माग्नि की उपासना के लिए मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।
पदपाठ : अग्निम्। वः। वृधन्तम्। अध्वराणाम्। पुरूतमम्। अच्छ। नप्त्रे। सहस्वते
पदार्थ : हे मनुष्यो, (वः) आप लोग (सहस्वते) प्रशस्त बल से युक्त (नप्त्रे) पतन को प्राप्त न होनेवाली तथा पतित न करनेवाली भौतिक सन्तान तथा सद्गुणादिरूप दिव्य सन्तान की प्राप्ति के लिए, (वृधन्तम्) वृद्धि करनेवाले, (अध्वराणाम्) अग्निहोत्रादि-अश्वमेधपर्यन्त, हिंसा-रहित, कर्मकाण्डमय यज्ञों के अथवा स्तुति, प्रार्थना, उपासना, स्वाध्याय, ब्रह्मयज्ञादि ज्ञानयज्ञों के (पुरूतमम्) अतिशय पूरक (अग्निम्) तेजोमय, अग्रणी परमात्मा के (अच्छ) अभिमुख होवो, अर्थात् उसकी आराधना करो ॥१॥
भावार्थ : परमेश्वर उपासकों की उन्नति करता है, उनसे किये जानेवाले ज्ञानयज्ञ, भक्तियज्ञ और कर्मयज्ञों को पूर्ण करता है और उन्हें सुप्रशस्त सन्तान तथा सद्गुण प्राप्त कराता है ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : प्रयोगो भार्गवः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्राद्ये मन्त्रे परमात्मानमुपासितुं जनान् प्रेरयति।
पदपाठ : अग्निम्। वः। वृधन्तम्। अध्वराणाम्। पुरूतमम्। अच्छ। नप्त्रे। सहस्वते
पदार्थ : हे मनुष्याः ! (वः२) यूयम् (सहस्वते) प्रशस्तबलयुक्ताय। सह इति बलनाम। निघं० २।९, प्रशंसार्थे मतुप्। (नप्त्रे३) अपतनशीलाय अपत्याय, भौतिकसन्तानस्य सद्गुणादिरूपदिव्यसन्तानस्य च प्राप्तये इत्यर्थः। तादर्थ्ये चतुर्थी। न पतति पातयति वा स नप्ता नञ्पूर्वात् पत्लृधातोः 'नप्तृनेष्टृ०’ उ० २।९७ इति तृच्, नञः प्रकृतिभावः, धातोष्टिलोपश्च। (वृधन्तम्) वर्धयन्तम्। लुप्तणिच्कं रूपम्। (अध्वराणाम्) हिंसारहितानाम् अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां कर्मकाण्डयज्ञानाम्, यद्वा स्तुतिप्रार्थनोपासनास्वाध्यायब्रह्मयज्ञादिज्ञानयज्ञानाम् (पुरूतमम्) अतिशयेन पूरयितारम्। पिपर्ति पालयति पूरयति वा यः स पुरुः। पॄ पालन-पूरणयोः इति धातोः ‘पॄभिदिव्यधिगृधिधृषिहृषिभ्यः' उ० १।२३। इत्युण्। अतिशयेन पुरुः पुरूतमः। 'अन्येषामपि दृश्यते' अ० ६।३।१३७ इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (अग्निम्) परमात्मानम् (अच्छ४) अभिमुखा भवत। अच्छ आभिमुख्ये। संहितायां 'निपातस्य च' अ० ६।३।१३६ इति दीर्घः ॥१॥
भावार्थ : परमेश्वर उपासकान् वर्धयति, तैरनुष्ठीयमानान् ज्ञानयज्ञान्, भक्तियज्ञान्, कर्म-यज्ञाँश्च पूर्णतां नयति, तान् सुप्रशस्तं सन्तानं सद्गुणाँश्च प्रापयति ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।१०२।७, साम० ९४६।२. छन्दसि षष्ठीचतुर्थीद्वितीयावत् प्रथमाबहुवचनेऽपि युष्मदस्मदोर्वस्नसादेशौ भवत इति प्रयोगसामर्थ्याल्लभ्यते। तथाहि—'वः यूयमित्यर्थः' इति भ०। वः यूयम् इति सा०।३. नप्त्रे पुत्राय। न पतन्ति अनेन लब्धेनेति नप्ता। सहस्वते बलवते। तं लब्धुमित्यर्थः—इति भ०।४. अच्छ अभिगच्छत इति सा०। निपाताः क्वचित् क्रियामप्यभिव्यञ्जन्ति।