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Samveda/94

दधन्वे वा यदीमनु वोचद्ब्रह्मेति वेरु तत्। परि विश्वानि काव्या नेमिश्चक्रमिवाभुवत्॥९४

Veda : Samveda | Mantra No : 94

In English:

Seer : somaahuti bhaargav | Devta : agniH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : dadhanve vaa yadiimanu vochadbrahmeti veru tat . pari vishvaani kaavyaa nemishchakramivaabhuvat.94

Component Words :
dadhanve.vaa .yat.iim. anu . vochat. brahma. iti. veH. u. tat. pari.vishvaani .kaavyaa. nemiH.chakram iva.abhuvat..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : सोमाहुति भार्गव | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कौन परमेश्वर को जानता है।

पदपाठ : दधन्वे।वा ।यत्।ईम्। अनु । वोचत्। ब्रह्म। इति। वेः। उ। तत्। परि।विश्वानि ।काव्या। नेमिः।चक्रम् इव।अभुवत्।४।

पदार्थ : (यत्) जब, उपासक (ईम्)  इस परमात्मा-रूप अग्नि को (अनु दधन्वे) अनुकूलतापूर्वक अपने हृदय में धारण कर लेता है, (वा) और (ब्रह्म इति) यह साक्षात् ब्रह्म है, ऐसा (वोचत्) कह सकता है, (तत् उ) तभी, वह उसे (वेः) जानता है, जो परमात्मा रूप अग्नि (विश्वानि) सब (काव्या) वेद-काव्यों अथवा सृष्टि-काव्यों को (परि अभुवत्) चारों ओर व्याप्त किये हुए है, (नेमिः) रथ के पहिए की परिधि (चक्रम् इव) जैसे रथ के पहिए को चारों ओर व्याप्त किये होती है ॥४॥इस मन्त्र में 'नेमिश्चक्रमिव' में उपमालङ्कार है ॥४॥

भावार्थ : जब परमात्मा के ध्यान में संलग्न योगी परमात्मा को धारणा, ध्यान, समाधि के मार्ग से अपने हृदय के अन्दर भली-भाँति धारण कर लेता है और हस्तामलकवत् उसकी अनुभूति करता हुआ 'यह ब्रह्म है, जिसका मैं साक्षात् कर रहा हूँ', इस प्रकार कहने में समर्थ होता है, तभी वस्तुतः उसने ब्रह्म जान लिया है, यह मानना चाहिए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : सोमाहुति भार्गव | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ कः परमेश्वरं जानातीत्याह।

पदपाठ : दधन्वे।वा ।यत्।ईम्। अनु । वोचत्। ब्रह्म। इति। वेः। उ। तत्। परि।विश्वानि ।काव्या। नेमिः।चक्रम् इव।अभुवत्।४।

पदार्थ : (यत्) यदा, उपासकः (ईम्) एनम् परमात्माग्निम्। ईम् एनम्। निरु० १०।४५। (अनु दधन्वे) आनुकूल्येन स्वान्तःकरणे धारयति। धवि गतौ धातोर्लडर्थे लिटि रूपम्, व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वा) किञ्च। वा इति समुच्चये। 'अथापि समुच्चयार्थे भवति'। निरु० १।५। (ब्रह्म इति) इदं साक्षाद् ब्रह्म वर्तते इति (वोचत्) वर्णयति। वच धातोर्लडर्थे लुङ्, अडागमाभावश्छान्दसः। (तत् उ) तदैव, स तम् (वेः२) जानाति। वी गत्यादिषु, लडर्थे लङ्, अडभावः। यः परमात्माग्निः (विश्वानि) समस्तानि (काव्या) काव्यानि, वेदकाव्यानि सृष्टिकाव्यानि वा (परि अभुवत्) पर्यभवत्, परितो व्याप्नोति। भू धातोर्लङि गुणं बाधित्वा उवङादेशश्छान्दसः। (नेमिः) रथचक्रस्य परिधिः (चक्रम् इव) रथचक्रं यथा परितो व्याप्नोति ॥४॥'नेमिश्चक्रमिव' इत्यत्रोपमालङ्कारः ॥४॥

भावार्थ : यदा परमात्मध्यानरतो योगी परमात्मानं धारणाध्यानसमाधिमार्गेण स्वहृदयाभ्यन्तरे सम्यग् धारयति, हस्तामलकवच्च तमनुभवन्, 'एतद् वै ब्रह्म यदहं साक्षात्करोमि' इति वक्तुं शक्नोति, तदैव वस्तुतस्तेन ब्रह्म ज्ञातमिति मन्तव्यम् ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० २।५।३, 'ब्रह्मेति, भुवत्' इत्यत्र क्रमेण 'ब्रह्माणि, भवत्' इति पाठः।२. वेः। मध्यमपुरुषैकवचनमिदं प्रथमपुरुषैकवचनस्य स्थाने द्रष्टव्यम्। वेत्ति जानातीत्यर्थः—इति वि०।