Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/93

राये अग्ने महे त्वा दानाय समिधीमहि । ईडिष्वा हि महे वृषं द्यावा होत्राय पृथिवी॥९३

Veda : Samveda | Mantra No : 93

In English:

Seer : vaamadevaH kashyapaH asito devalo vaa | Devta : agniH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : raaye agne mahe tvaa daanaaya samidhiimahi . iiDiShvaa hi mahe vRRiSha.m dyaavaa hotraaya pRRithivii.93

Component Words :
raaye.agne .mahe.tvaa .daanaaya. sam. idhiimahi . iiDiShva. hi. mahe. vRRiShan. dyaavaa. hotraaya. pRRithiviiiti..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वामदेव: कश्यप: असितो देवलो वा | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में अग्नि नाम से जीवात्मा को सम्बोधित किया गया है।

पदपाठ : राये।अग्ने ।महे।त्वा ।दानाय। सम्। इधीमहि । ईडिष्व। हि। महे। वृषन्। द्यावा। होत्राय। पृथिवीइति।३।

पदार्थ : हे (अग्ने) शरीरस्थ मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि देवों में अग्रणी हमारे जीवात्मन् ! हम (महे राये) प्रचुर सोना, चाँदी, विद्या, विवेक आदि धन को कमाने के लिए और (दानाय) उसके दान के लिए (त्वा) तुझे (समिधीमहि) प्रदीप्त-प्रबुद्ध करते रहें। हे (वृषन्) बली जीवात्मन् ! तू (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूलोक की (महे होत्राय) महान् होम के लिए (ईडिष्व) स्तुति कर, प्रशंसा कर। ये द्यावापृथिवी जगत् के हितार्थ सृष्टि-संचालन-यज्ञ में सर्वस्व-होम कर रहे हैं, इस रूप में उनके गुणों का वर्णन कर और उनसे प्रेरणा लेकर स्वयं भी परोपकारार्थ होम कर, यह भाव है ॥३॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि अपने आत्मा को प्रबोधन देकर दानशील आकाश-भूमि से शिक्षा लेकर धनों के कमाने तथा दान देने में प्रवृत्त हों ॥३॥

टिप्पणी :अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कौन परमेश्वर को जानता है।


In Sanskrit:

ऋषि : वामदेव: कश्यप: असितो देवलो वा | देवता : अग्निः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथाग्निनाम्ना जीवात्मा सम्बोध्यते।

पदपाठ : राये।अग्ने ।महे।त्वा ।दानाय। सम्। इधीमहि । ईडिष्व। हि। महे। वृषन्। द्यावा। होत्राय। पृथिवीइति।३।

पदार्थ : हे (अग्ने) देहस्थेषु मनोबुद्धीन्द्रियादिषु देवेषु अग्रणीभूत अस्मदीय जीवात्मन् ! वयम् (महे राये) विपुलाय धनाय, विपुलं स्वर्णरजतविद्याविवेकादिधनम् अर्जयितुमिति भावः, (दानाय) अर्जितं धनं सत्पात्रेभ्यो दातुं च (त्वा) त्वाम् (समिधीमहि) प्रदीपयेम, प्रबोधयेम इत्यर्थः। हे (वृषन्) बलवन् जीवात्मन् ! त्वम् (द्यावा-पृथिवी) द्युलोकं भूलोकं च (महे होत्राय) महते होमाय (ईडिष्व) स्तुहि, प्रशंस। द्यावापृथिवी इमे जगतो हिताय सृष्टिसञ्चालनयज्ञे सर्वस्वहोमं कुरुत इति तयोर्गुणान् वर्णय, ततः प्रेरणां गृहीत्वा स्वयमपि परोपकाराय होमं कुरु, इति भावः ॥३॥

भावार्थ : मनुष्यैः स्वात्मानं प्रबोध्य दानशीलाभ्यां द्यावापृथिवीभ्यां शिक्षां गृहीत्वा धनानामर्जने दाने च प्रवृत्तिर्विधेया ॥३॥

टिप्पणी:अथ कः परमेश्वरं जानातीत्याह।