Samveda/206
सुनीथो घा स मर्त्यो यं मरुतो यमर्यमा। मित्रास्पान्त्यद्रुहः॥२०६
Veda : Samveda | Mantra No : 206
In English:
Seer : vatsaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : suniitho ghaa sa martyaa ya.m maruto yamaryamaa . mitraaspaantyadruhaH.206
Component Words : suniithaH.su.niithaH. gha. saH. martyaH. yam. marutaH. yam.aryamaa. mitraaH.mi.traaH. paanti. adruhaH. a.druhaH..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में मित्र, मरुत् और अर्यमा का विषय वर्णित है।
पदपाठ : सुनीथः।सु।नीथः। घ। सः। मर्त्यः। यम्। मरुतः। यम्।अर्यमा। मित्राः।मि।त्राः। पान्ति। अद्रुहः। अ।द्रुहः।३।
पदार्थ : प्रथम—अध्यात्म पक्ष में।हे इन्द्र परमात्मन् ! (सः) वह (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (घ) निश्चय ही (सुनीथः) शुभ नीति से युक्त अथवा प्रशस्त हो जाता है, (यम्) जिसे (मरुतः) प्राण, (यम्) जिसे (अर्यमा) श्रेष्ठ विचारों का सम्मानकारी आत्मा, और जिसे (अद्रुहः) द्रोह न करनेवाले (मित्राः) मित्रभूत मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आँख, कान, त्वचा, नासिका और जिह्वा (पान्ति) रक्षित-पालित करते हैं ॥द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (सः) वह (मर्त्यः) प्रजाजन (घ) निश्चय ही (सुनीथः) सन्मार्ग पर चलनेवाला, सदाचारपरायण हो जाता है (यम्) जिसे (मरुतः) वीर क्षत्रिय, (यम्) जिसे (अर्यमा) धार्मिक न्यायाधीश और (अद्रुहः) राजद्रोह या प्रजाद्रोह न करनेवाले (मित्राः) मित्रभूत अन्य राज्याधिकारी-गण (पान्ति) विपत्तियों से बचाते तथा पालित-पोषित करते हैं ॥३॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : इस जगत् या राष्ट्र में बहुत से लोग योग्य मार्गदर्शन को न पाकर सन्मार्ग से च्युत हो जाते हैं। परन्तु जीवात्मा, प्राण आदि अध्यात्म-मार्ग पर चलते हुए जिस मनुष्य पर अनुग्रह करते हैं, तथा राष्ट्र में राज्याधिकारी जिसकी सहायता करते हैं, वह निरन्तर प्रगति के पथ पर दौड़ता हुआ लक्ष्य-सिद्धि को पाने में समर्थ हो जाता है ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ मित्रमरुदर्यमविषयमाह।
पदपाठ : सुनीथः।सु।नीथः। घ। सः। मर्त्यः। यम्। मरुतः। यम्।अर्यमा। मित्राः।मि।त्राः। पान्ति। अद्रुहः। अ।द्रुहः।३।
पदार्थ : प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे इन्द्र परमात्मन् ! (सः) असौ (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (घ) निश्चयेन। संहितायां ‘ऋचितुनुघ' अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः। (सुनीथः२) शुभनीतियुक्तः प्रशस्यो वा जायते। णीञ् प्रापणे धातोः 'हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्'। उ० २।२ इति क्थन्। शोभनः नीथः नयः अस्यास्तीति सुनीथः। सुनीथ इति प्रशस्यनाम। निघं० ३।८। (यम्) मर्त्यम् (मरुतः) प्राणाः, (यम्) मर्त्यम् (अर्यमा) अर्याणां श्रेष्ठविचाराणां संमानकर्ता आत्मा, (अद्रुहः) अद्रोग्धारः (मित्राः) सुहृद्भूता मनोबुद्धिचित्ताहंकाराश्चक्षुः- श्रोत्रत्वग्घ्राणरसनाश्च (पान्ति) रक्षन्ति पालयन्ति वा ॥अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे इन्द्र राजन् ! (सः) असौ (मर्त्यः) प्रजाजनः (घ) निश्चयेन (सुनीथः) सन्मार्गगन्ता सदाचारपरायणः जायते। नयति देशाद् देशान्तरमिति नीथो मार्गः। अत्र नैतिको मार्गो ग्राह्यः। (यम् मरुतः) वीराः क्षत्रियाः, (यम् अर्यमा) धार्मिको न्यायाधीशः, (अद्रुहः) राजद्रोहं प्रजाद्रोहं वाऽनाचरन्तः (मित्राः) मित्रभूताः अन्ये राज्याधिकारिणश्च (पान्ति) विपद्भ्यो रक्षन्ति पालयन्ति च ॥३॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
भावार्थ : अस्मिन् जगति राष्ट्रे वा बहवो जना योग्यमार्गदर्शनमलभमानाः सन्मार्गाच्च्यवन्ते। परं जीवात्मप्राणादयोऽध्यात्ममार्गे क्रममाणं यं जनमनुगृह्णन्ति, राष्ट्रे च राज्याधिकारिणो यस्य साहाय्यं कुर्वन्ति, स निरन्तरं प्रगतिपथमनुधावन् लक्ष्यसिद्धिं प्राप्तुं क्षमते ॥३॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।४६।४ ऋषिः दशोऽश्व्यः। मित्रः पान्त्यद्रुहः इति पाठः।२. सुनीथः सुप्रशस्तः—इति वि०। सुमार्गः—इति भ०। सुयज्ञः सुनयनो वा इति सा०।